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द्वितीय अध्याय
मानकर विशेषणो के द्वारा पृथक्करण किया जाता है वहाँ विवि या प्रकार शब्द का प्रयोग होता है । अत मख्या तथा प्रकार दोनो का उल्लेख करना न्यायोचित है, विधि एव सख्या दोनो को भिन्न मानना ठीक है । यदि दोनो को एक ही मान ले तो व्यवहार मे भी ज्वर के द्विविध, त्रिविध एव अष्टविध का साथ हो उल्लेख करना होगा जो असगत प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त विधिरूप सम्प्राप्ति के परिणाम तथा संख्यारूप सम्प्राप्ति के परिणाम मे भी भेद होता है । जैसे ऊर्ध्वगरक्तपित्त मे अधोमार्ग से दोप के हरण करने से शान्ति मिलती है ऊर्ध्व हरण से नही, उसी प्रकार अधोग रक्तपित्त मे ऊर्ध्व मार्ग से दोपहरण प्रशस्त अधोमार्ग से नही । यह ज्ञान सख्या एव विकल्प सम्प्राप्ति के पृथक्-पृथक् निर्देश करने से ही सम्भव रहता है ।
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विकल्प या अशाश कल्पना से हो यदि व्याधिभेद करना सम्भव रहता तो फिर सख्यामम्प्राप्ति से पृथक् करण की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यह है—कि संख्यासम्प्राप्ति से स्थूल विभेद दोपों का हो जाता है, परन्तु उनके सूक्ष्म अंशाशो का भेद विकल्प से ही करना सम्भव है । अत. मख्या तथा विकल्प दोनो चिकित्सा के उपक्रमो मे अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । अस्तु दोनो का वर्णन अपेक्षित है ।
आधुनिक परिभाषाओ की दृष्टि से विचार किया जावे तो सख्या से Main classification of the Diseases tppes or subclassification of the Diseases, Main changs, अप्राधान्य से Secondry changes ( Main or secondary defects ), बल एवं विकल्प से Mode of on sef of the disease o Intesity of Disease or pathogenesis, age Timefactor in diseases आदि का बोध होता है । इस तरह से विचार करने का उद्देश्य ( Exlent of damage in a particular disease ) रोग मे किस सीमा तक किसी विकार मे क्षति हुई है, इस बात की जानकारी हासिल करना होता है । फिर तदनुकूल उपचार की व्यवस्था करना चिकित्सक का अन्तिम लक्ष्य माना जाता है । इस प्रकार सम्प्राप्ति भेदो का कथन निदान एव चिकित्सा की दृष्टि से बडा उपयोगी होता है । उपसंहार
रोगोत्पत्ति मे दोष को कारणता
१ सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः । तत्प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधाहितसेवनम् ॥