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चतुर्थखण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय
(६६३
नरल रसायन सेवन के योग
मेधावृद्धिकर या मेध्य रसायन -१ केवल मण्डूकपणां का ताजा स्वरन अग्निवल के अनुसार १ तोले से २|| तोले प्रतिदिन सेवन करे । २ केवल मधुयष्टी ( मुठी ) का चूर्ण ६ माशे से २ तोले की मात्रा मे प्रति दिन गाय के दूध के साथ पी ले । ३. केवल गुडूचो का स्वरस १ से २ तोले को मात्रा में प्रतिदिन सेवन करे । ४. केवल शखपुष्पी को फूल
सम्पूर्ण मूल और
)
बनाकर मिश्री के
के नाथ उपा ले और उसका कल्क ( १ तोला साथ पानी में घोलकर शर्बत बनाकर पान करें। इन चारो
ओषधियो मे शख
रोगो के
नाशक, बल-वर्ण
पुष्पी विशेष मेध्य है | ये चारो योग आयुवर्द्धक, स्वर एवं अग्निवर्द्धक, मेध्य तथा रसायन गुणो से युक्त होते हैं ।' इन ओपधियो का सेवन एक मान से तीन मास तक करके बन्द कर देना चाहिए । कुछ वर्षो का अन्तर देकर पुन आवश्यकतानुसार सेवन कराना चाहिए । शखपुष्पी कुछ वंचों में विष्णुकान्ता का व्यवहार भी पाया जाता है ।
से
भृंगराज रसायन - केवल भृङ्गराज का ताजा स्वरस । मात्रा आधा से
१ तोला । भूम लगने पर केवल दूध का सेवन अथवा के भात का सेवन । नमक, मिर्च, मसाले और शाक, कुल नेवन काल एक मात इस प्रयोग से मनुष्य वर्ष तक जीवित रहता है |
अश्वगंधा रसायन - नागौरी असगघ के चूर्ण का १ माशा से ६ माशा तक की मात्रा में घृत, तैल, दूध या मन्दोष्ण जल के अनुपान से मिश्री मिलाकर सेवन करने मे दुवले शरीर की इस प्रकार पुष्टि होती हैं, जिस प्रकार वृष्टि से धान के नये अकुर वढते है । 3 कुल पन्द्रह दिनो के प्रयोग से ही पर्याप्त पुष्टि सेवन
दूध और साठी के चावल भाजी दाल का परिहार ।
वल-वर्ण युक्त होकर एक सौ
१. मण्डूकपर्ण्या स्वरमं यथाग्निक्षीरेण यष्टीमधुकस्य चूर्णम् ।
रस गुडूच्या. मह मूलपुष्प्या. कल्कं प्रयुञ्जीत च शखपुष्या. ॥ आयुष्प्रदान्यामयनाशनानि वाग्निवर्णस्वरवर्धनानि । मेध्यानि चैतानि रसायनानि मेध्या विशेषेण च शखपुष्पी ॥ ( अ. हृ उ. ३९ )
२. ये माममेकं स्वरम पिवन्ति दिने दिने भृङ्गरज समुत्थम् । क्षीराजिनस्ते वलवर्णयुक्ता समा शत जीवितमाप्नुवन्ति ॥ (भैर) ३ पोताश्वगन्धापयसार्द्धमास घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा । कृशस्य पुष्टि वपुपो विधत्ते वालस्य सस्यस्य यथाम्बुवृष्टि ॥
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