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चतुर्थ खण्ड : चौबीसवॉ अध्याय ४५६ महागद ( महारोग ) की संज्ञा भी दी है। अपस्मार से मिलते हुए लक्षणो वाले एक दूसरे रोग का वर्णन अतत्त्वाभिनिवेश नाम से किया है । इस को भी महागद वतलाया है।
मलिन आहारशील, प्राप्त वेगो के रोकने वाले व्यक्तियो मे, शीत-उष्णरूक्षादि के अति सेवन से रज एवं तमो गुण की वृद्धि होकर हृदय, मस्तिष्क तथा मनोवह स्रोतो की दुष्टि होती है। मनुष्य मूढ या अल्प चैतन्य का हो जाता है, उसकी बुद्धि विषम (विपरीत या उल्टी) हो जाती है फलत वह हित को अहित, अहित को हित, भले को बुरा, बुरे को भला, नित्य को अनित्य और अनित्य को नित्य समझता है । इस रोग को महागद अतत्त्वाभिनिवेश कहते है । इसमे Fixed delusion, Amentra, Dementia जैसी अवस्था हो जाती है।
क्रिया-क्रम-१. इस रोग मे रोगी का स्नेहन और स्वेदन करके वमनविरेचन प्रभृति पंचकर्मो के द्वारा शोधन करना उत्तम रहता है। शोधन के अनन्तर ससर्जन करते हुए रोगी को प्रकृताहार पर लाना चाहिए । मध्य-मस्तिष्क शक्ति या बुद्धिवर्धक आहार ( भोजन ) रोगो को देना चाहिये। शखपुष्पी, ब्राह्मो-स्वरस, मण्डूकपर्णो स्वरस, पचगव्य घृत, रसायनाधिकार मे कथित मेध्य रसायन का उपयोग करना चाहिए। तैल और लहसुन का प्रयोग, दूध और शतावरी का प्रयोग तथा अन्य अपस्माराधिकार की औपधियो का योग अतत्त्वाभिनिवेश युक्त रोगियो में भी करना चाहिये। अपस्मार तथा अतत्त्वाभिनिवेश ये दोनो ही महारोग एवं दुश्चिकित्स्य है, अस्तु, रसायनो के दीर्घ काल के उपयोग से जीते जा सकते है । साथ ही धर्म, अर्थ से सम्बद्ध, प्रियमित्रो के अनुकूल वचन, विज्ञान, धैर्य, धृति और समाधि का योग उत्तम रहता है।
१ सुहृदश्चानुकूलास्त स्वाप्ता धर्मार्थवादिन । । सयोजयेयुविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभि ॥ . दुश्चिकित्स्यो ह्यपस्मार श्चिरकारी कृतास्पद । तस्माद्रसायनरेन प्रायशः समुपाचरेत् ॥ (च० वि० १०)