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भिपकर्म-सिद्धि
है या पत्र की यह जानना आवश्यक नहीं है। जिस प्रकार धूम सामान्य अग्नि का वोधक है उसी प्रकार पूर्वरूप मात्र की अभिव्यक्ति रूप कहलाता है जिससे रोग का ठीक ज्ञान होता है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण लक्षणो की अभिव्यक्ति से रोग असाध्य एव अल्प लक्षणो की व्यक्ति से साध्य होता है।
स्वरूप शब्द का विग्रह-ईश्वरसेन ने व्याधि का अपना व्यक्तरूप ( स्वरूप व्यक्तम् ) को रूप बतलाया है। स्वरूप शब्द से क्या अर्य ग्रहण किया जावे ? विजयरक्षित ने इसकी तर्क-हीनता इस प्रकार सिद्ध की है । आपका कथन है कि स्वरूप शब्द के दो विग्रह हो नकते है-स्व उप स्वत्पम् अर्थात् व्याधि का अपना रूप या स्वभाव ही व्याधि का रूप है-तो यह ठीक नही है क्योकि इसमे 'स्वात्मनि क्रियाविरोध' दोप आता है । अर्थात् अपने मे ही क्रिया का विरोध यानी ज्ञेय या प्रमेय वस्तु का अपने लिये ज्ञापक या प्रमाण होना ही स्वात्मनि क्रियाविरोध है। कोई सासारिक वस्तु अपने लिये स्वतः प्रमाण नहीं है उसके ज्ञापन के लिये ज्ञापकान्तर की आवश्यकता होती हैं। दीपक सम्पूर्ण वस्तुओ का दर्शन या ज्ञापन कराने वाला होते हुए भी अपने ज्ञापन के लिये चक्षु रूप ज्ञापकान्तर की अपेक्षा रखता है। यहाँ पर व्याधि का स्वभाव ही ज्ञेय विषय है उसी को व्याधि स्वभाव का ज्ञापक मानना असंगत है। इसी को शास्त्र मे स्वात्मनि क्रियाविरोध कहा जाता है । अस्तु स्वरूप शब्द का उक्त विग्रह करना उचित नही है।
'स्वीय रूप स्वरूपम्' यदि ऐसी व्याख्या की जावे अर्थात् रोग का रूप ही व्याधि का रूप है तो यह विग्रह भी ठीक नही प्रतीत होता । स्वीय रूप के दो अर्थ होते है--स्वीय धर्म ( व्याधि का अपना धर्म ) या स्वीय कार्य ( व्याधि का अपना कर्म )। स्वीय धर्म माने तो शास्त्र मे कहे गये त्वचा, नख, मल, मूत्र तथा दांत का कालापन आदि अर्श के लक्षणो का रूप नही कह सकते 'श्यावारुणपरुपनखनयनवदनत्वड मूत्रपुरीपस्य वातोल्वणान्यशीसीति विद्यात्' 'कृष्ण त्वड्नखनयनवदनदशनमूत्रपुरीपश्च पुरुपो भवति वातार्शसि क्योकि धर्म धर्मो मे रहता है अन्य मे नही । अर्ग एक शरीर मे दृश्यमान मस्से के रूप की व्याधि है यही इस व्याधि का धर्म है-अस्तु नखादि का कालापन अर्श का धर्म नही है, प्रत्युत वह वात दोप का ही धर्म है। धर्म न होने पर नखादि का कालापन अर्श का रूप भी नहीं माना जा सकता । अस्तु यह विग्रह विलष्ट कल्पना है फलत अनुचित है।