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चतुथखण्ड : अट्ठाइसवाँ अध्याय भेपज-एरण्ड तैल-आम वात रोग में एरण्ड तैल एक रामावाण औपधि है । एरण्ड तैल में दो गुण होते हैं-रेचन क्रिया के द्वारा आम दोप का निकालना तथा स्निग्ध होने के कारण वायु का शमन करना। आमवात मे यही दो विकार रहते हैं--उन दोनो ही विकारो का शमन एरण्ड तैल से हो जाता है । अस्तु, आमवात में विशिष्ट औषधि के रूप में यह व्यवहृत होता है। इसके प्रयोग के दो साधन हैं बड़ी मात्रा मे (एक छटाक) रेचन के लिये या थोडी-थोडी मात्रा मे १-२ चम्मच का प्रयोग करना। रेचन तो नित्य दिया नही जा सकता है-अस्तु, सप्ताह में एक दिन या दो दिन, पक्ष मे एक दिन या मास में एक दिन रोगी तथा रोग के बल के अनुसार दिया जा सकता है । छोटी मात्रा में किसी कपाय ( दशमूल बपाय, शु ठी कपाय या रास्नासप्तक कपाय) के साथ मिलाकर मास, दो माम या अधिक लम्बे समय तक भी उपयोग में लाया जा सकता है । इस प्रयोग-विधि से तेज रेचन नहीं केवल कोष्ठगुद्धि होती है, माम निकल जाया करता है, और रोगी को अच्छा लाभ प्रतीत होता है । सौंफ के अर्क एक छटाँक मे १ चम्मच मिलाकर भी लम्बे समय तक दिया जा सकता है । गोमूत्र एक छटांक की मात्रा में उममे १ चम्मच एरण्ड तैल मिलाकर भी लम्बे समय तक प्रयोग किया जा सकता है। एरण्ड वीज का प्रयोग भी आमवात में उत्तम रहता है, वीज को छिल्के से पृथक् करके उसकी गुद्दी का सेवन कराना अथवा वात रोगाधिकार में पठित एरण्ड-पाक का प्रयोग भी उत्तम रहता है। एरण्ड का प्रयोग केवल रेचन के विचार से आमवात में नहीं कराया जाता है, क्याफि उसके लिये तो बहुत से रेचक योग है, प्रत्युत आमवात विशिष्ट लाभप्रद होने से कराया जाता है। भाव-प्रकाश ने एरण्ड तैल का आमवात में प्राशस्त्य बतलाते हुए लिखा है। गरीररूपी वन में विचरण करने वाले आमवातरूपी मतवाले हाथी को नष्ट करने के लिए एरण्ड तैल रूपी सिंह अकेला पर्याप्त है। १ एरण्ड के मूल का प्रयोग भी सभी वात रोगो मे विशेपत आमवात मे लाभप्रद रहता है । जैसे-एरण्डमूल, गोखरू, रास्ना, सौफ, पुनर्नवा इनका विधिवत्
१. आमवातगजेन्द्राणा शरीरवनचारिणाम् । निहन्त्यसावेक एव एरडस्नेहकेशरी ॥ कटीतटनिकुञ्जपु सचरन् वातकुञ्जर । एरण्डतैलसिंहस्य गन्धमाघ्राय गच्छति ।। रास्नादिक्वाथसयुक्त तैल वातारिसज्ञकम् । प्रपिवन् वातरोगात सद्य. शूलाद्विमुच्यते ॥ दशमूलकषायेण पिवेद्वा नागराम्भसा । कुक्षिवस्तिकटीशूले तैलमेरण्डसभवम् ॥ एरण्डो गोक्षुर रास्ता शतपुष्पा पुनर्नवा । पान पाचनके शस्तं सामे वाते सुनिश्चितम् ।। (यो ) ,
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