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________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २७७ +( पूवे, घेवर आदि घी या तेल के तले पदार्थों का परहेज हमेशा ही करना चाहिये । अन्य भी इस प्रकार के दुर्जर और गरिष्ठ भोजनो का सेवन ग्रहणी रोग से मुक्त को सदैव नही करना चाहिये । अन्न के प्रारंभ हो जाने पर दूध और तक्र की मात्रा क्रमण कम कर देनी चाहिये । परन्तु एक बारगी नही बन्द करना चाहिये । ग्रहणी के रोगी में रोगमुक्तावस्था के अनन्तर भी दही, तक्र और दूध के सेवन का क्रम सदा बनाये रखना उत्तम है | ग्रहणी रोग में प्रयुक्त सिद्ध घृत - विल्वगर्भ घृत, शुठीघृत, नागरघृत, चित्रक घृत, विल्व घृत, मरिचाद्य घृत, पट्पल घृत, महापट्पल घृत तथा चारी घृत | चाङ्गेरी घृत -- पचकोल, गोक्षुर, धान्यक, विल्वमज्जा, पाठा, अजवायन । इन द्रव्यों का समभाग में लेकर पोस कर कल्क वना ले । फिर इस कल्क से चतुर्गुण वृत, वृत से चतुर्गुण चाङ्गेरी का स्वरस अथवा क्वाथ तथा घृत से चतुर्गुण दही और उतना ही पानी लेकर सबको कलईदार कडाही मे रख घृत को सिद्ध कर ले। यह योग अर्शोरोग, जीर्ण-प्रवाहिका, गुदभ्रंश तथा ग्रहणी मे लाभ करता है । मात्रा १-२ तोले । अनुपान अजाक्षोर या गोदुग्ध के साथ | ग्रहणी रोग में प्रयुक्त होनेवाले तैल - विल्व तैल, ग्रहणीमिहिर तैल, वृहद् ग्रहणीमिहिर तैल, दाडिमाद्य तैल 1 इन तैलो मे से किसी एक का अभ्यंग तथा पान लाभप्रद होता है । ग्रहणी में प्रयुक्त आसवारिष्ट-तक्रारिष्ट, पिप्पल्याद्यासव तथा कुटजारिष्ट । कुटजारिष्ट - कुटज की छाल ५ सेर, मुनक्का २॥ सेर, महुए का फूल आधा सेर, गाम्भारी को छाल आधा सेर, जल १ मन ११ सेर ३ छटांक | क्वाथ वनाकर चतुर्थाश शेप करे । फिर इसे एक घट मे रख कर उसमे धाय का फूल १ सेर, गुड ५ मेर मिलाकर । १ मास तक सधान । मात्रा २ तो० । अनुपान समान जल मिलाकर भोजन के पश्चात् । ग्रहणी मे एक व्यवस्था पत्र - १ पचामृत पर्पटी ३ २०, ३ २०, लाचो चूर्ण २ माशा मिलाकर ३ मात्रा मधु से दिन मे २ कुटजारिष्ट भोजन के वाद २ चम्मच समान जल मिलाकर । अजीर्णकटक तीन बार ।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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