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भिपक्कर्म-सिद्धि
आठवाँ अध्याय अर्शोरोग प्रतिषेध
क्रियाक्रम - अर्शो रोग को विनष्ट करने के लिये चार प्रकार से चिकित्सा की जाती है । भेपज, शस्त्र, क्षार तथा अग्नि । इनमें आद्य अर्थात् भेपज चिकित्सा ही अपना प्रतिपाद्य विषय है | आचार्य सुश्रुत ने इनकी चतुविध साधनोपाय नाम से व्यास्या की है और वतलाया है कि अचिरकालजात ( जो चिरकाल से न हो ), अल्प दोप, लक्षण एवं उपद्रवो से युक्त तथा अदृश्य अर्शो मे प्राय. भेषज के द्वारा उपचार करना उत्तम रहता है । मृदु अकुर युक्त, फैले हुए ( प्रसृत ), गहराई में पहुचे हुए ( अवगाढ एव उच्छ्रित) अर्श के अकुरो मे अथवा वातश्लेष्मज या रक्त-पित्त दोपयुक्त अवस्था में क्षार कर्म के द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये । कर्कश - स्थिर स्थूल और कठिन ( कडे ) अर्गाङ्कुरो मे अथवा वातश्लेष्मज दोपयुक्त अर्ग मे अग्निकर्म के द्वारा उपचार ठीक रहता है तथा तनुमूल ( पतले जड़ वाले ), उठे हुए ( उच्छ्रित ) एवं क्लेदयुक्त सभी प्रकार के दोपोत्पन्न अशङ्कुरो मे शस्त्रकर्म के द्वारा उपचार करना उत्तम रहता है | ( सुचि. ६) १
चरक ने भेपज ( योपधि-योग ) से अर्श की चिकित्सा करने को सर्वोत्तम साधन माना है तथा उसकी अधिकार पूर्ण प्रगमा भी की है । काय-चिकित्सा के समर्थक होने के कारण उन्होने अपने भेपज - साधन को सुखोपाय और अदारुण कर्म नाम से प्रशंसा की है और अर्शोकी समूल निवृत्ति के लिये भेपज-साधन को हेतु भी माना है । दूसरे साधनोपायो को अर्थात् शस्त्र क्षार एव अग्निकर्म को उतना उपयुक्त न मानते हुए इन क्रियावो से चिकित्सा करने की पद्धति की चुटकी भी ली है। उनका कथन है कि कुछ लोगो का कहना है कि अर्श के मस्सो को काटकर निकालना चाहिये । दूसरे क्षार के द्वारा जलाने की सलाह देते हैं और अन्य लोगो ने अग्नि के द्वारा दाह का विधान वतलाया है । इसमें सन्देह नही ये सभी मत वडे आचार्यो के हैं तथा तन्त्रसम्मत है । साथ ही कर्म करने वाले चिकित्सक भी दृष्टकर्मा और प्रत्यक्षाभ्यासी व्यक्ति होते है और तोनो क्रियाये अर्ग के प्रतिकार रूप मे प्रचलित हैं | परन्तु निजी अनुभव में इनकी क्रियावो के द्वारा कई प्रकार के उपद्रव होते देखे गये है । जैसे, दारुण गुदभ्र श ( Prolapse of Rectum) पुस्त्वोपघात ( Impoteny ), गुदपाक
१. दुर्नाम्ना साधनोपायञ्चतुर्धा परिकीत्तित । भेपजक्षारगस्त्राग्निकर्म चाद्यन्तु सम्मतम् ॥