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चतुर्थखण्ड : चोतीसवाँ अध्याय
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सुवर्ण वंग- शुद्ध वग २० तोले लेकर उसे लोहे या मिट्टी के पात्र मे डालकर, पात्र को चूल्हे पर चढाकर मद-मद आंच पर वग को पिघलावे | फिर इस पिघले वग को एक पत्थर के खरल मे जिसमे २० तोले शुद्ध पारद हो तुरन्त उसमे छोडे और अच्छी प्रकार से घोटे । फिर दोनो की पिष्टि हो जाने पर उसमे ५ तोला सैधव लवण डालकर घाटे । आधे घंटे तक घोटने के पश्चात् उसको जल से प्रक्षालित करे । इस प्रकार २१ वोर लवण के साथ मर्दन कर उसको २१ चार प्रक्षालित करे । फिर उसमे पारद के वरावर शुद्ध गधक ( २० तोला ) मिलाकर वज्जली बनावे, पश्चात् २० तोला नवसादर मिलाकर मर्दन करे फिर पारद से चौथाई कल्मी शोरा ( ५ तोला ) डालकर खूब घोटकर रखे । अब इस द्रव्य को मात वार कपडमिट्टी की हुई आतशी शोशो मे उसके चतुर्थाश तक भर कर आतशी शीशी को वालुका यत्र मे चढाकर १२ घंटे तक पाक करे । अग्नि की आंच देना प्रारंभ करे । थोडी देर मे कज्जली उबल कर ऊपर आने लगे तो आंच को मद कर दे। बीच बीच मे लोहे की शलाका को शीशी के मुख के भीतर प्रविष्ट करके गधक के जलने का ज्ञान होता चलता है । जब शीशी पर श्वेत धूम न दिखलाई पडे और जब शलाका प्रविष्ट करने पर उसके अग्र पर लाल चमक्ते पीले रंग के कण लगने लगे तो आँच देना कम कर देना चाहिये । यह गचक के जीर्ण हो जाने का चिह्न है । इस प्रकार खुले मुख से ही सुवर्ण वग का पाक होता है ।
इस प्रकार पाक करने से सुवर्ण के समान चमकता हुआ अत्यन्त सुन्दर 'सुवर्ण वर्ग' नामक रसायन सिद्ध होता है । यह सुवर्ण वग बलवर्धक, प्रमेहनाशक, जीर्ण पूयमेहादि में लाभप्रद, शरीर की कान्ति, मेवा, वीर्य एव अग्नि का बढाने वाला होता है ।
अपूर्व मालिनी वसन्त- वैक्रान्त भस्म, अम्र भस्म, ताम्र भस्म, सुवर्णमाक्षिक भस्म, चादी भस्म, वग भस्म, प्रवाल भस्म, रस सिन्दूर, लौह भस्म, शुद्ध टकण, क्षुद्र शत्र भस्म ( शम्बूक या घोघा की भस्म, प्रत्येक १ - १ तोला लेकर सब को महीन पीस कर खस, हरिद्रा तथा शतावर के क्वाथ की पृथक्-पृथक् सात-सात भावना दे । फिर उसमें कस्तूरी तथा कपूर प्रत्येक १ - १ तोला मिलाकर २-२ रत्ती को गोलियां बना ले | पिप्पली चूर्ण और मधु के अनुपान से एक-एक गोली प्रात - सायम् देने से सभी प्रकार के जीर्ण ज्वरो मे लाभ होता है । गुडूचीसत्त्व और मिश्री के अनुपान से सभी प्रमेहो मे प्रशस्त है | नीबू के जड के क्वाथ के साथ मूत्रकृच्छ्र तथा अश्मरी मे प्रयोग करना चाहिये ।
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