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१ मेर, गायन, तगर, सारिखा,
चतुर्थ खण्ड : पचीसवाँ अध्याय ४६५ शेष ४ सेर । प्रसारणी २ सेर, जल १६ सेर, शेप जल ४ सेर । सौफ २ सेर,' जल १६ मेर, शेप जल ४ सेर । लाक्षा २ सेर, जल १६ सेर, शेप ४ सेर । काजी ४ मेर, शतावर का स्वरस २ सेर, पाताल कोहडा का स्वरस २ सेर, दही ४ सेर, गोदुग्ध ४ सेर । कल्क द्रव्य-सोया, सौफ, मेथी, रास्ना, गजपीपरि, रास्ना, नागरमोथा, असगंध, खस, मुलेठी, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, बला, भुई आँवला प्रत्येक १६ तोले। मंद आंच पर पाक करे । यह एक उत्तम बृहण तेल बहुत प्रकार की वात व्याधियो मे लाभप्रद होता है।'
सिद्धार्थक तैल-शतावरी स्वरस १॥ सेर ८ तोले, मूच्छित तिल-तैल १ मेर, गाय का दूध ४ सेर । अदरक का रस ३ पाव । सौफ, देवदार, वलामूल, लाल चदन, तगर, कूठ, छोटी इलायची, शालपर्णी, रास्ना, असगध, मजीठ, श्वेत सारिवा, कृष्ण सारिवा, पृश्निपर्णी, वच, एरण्डमूल, सैन्धव लवण इन को सम भाग मे लेकर पीस कर कल्क १६ तोले । यथाविधि-पाक करे । यह सम्पूर्ण वात रोगो मे लाभप्रद है । इसका विशेष लाभ पोने से होता है । मात्रा १ से २ तोला भोजन के बाद दूध मे छोड कर १२
सहाराज प्रसारणी तल-प्रसारणी तेल के नाम से कई तेलो के पाठ सग्रह ग्रंथो में पाये जाते हैं। जैसे-पुष्पराजप्रसारणी, कुब्जप्रसारणी, त्रिशती प्रसारणो, सप्तशतिक प्रसारणी, 'एकादशशतिक प्रसारणी, अष्टादश शतिक प्रसारणी आदि। इनमे महाराज प्रसारणी तेल एक परमोत्तम योग है। उसका योग यहाँ दिया जा रहा है । यह तेल बहुत मूल्यवान् पडता है, इसमे भल्लातक पड़ा हुआ है। अल्प मात्रा मे भी अभ्यग में प्रयुक्त होकर लाभप्रद होता है। -
गंधप्रसारणी का पचाग १५ सेर, पीले फूल वाली कटसरैया ( सैरेयक ) १० सेर, असगंध, एरण्डमूल, बलापचान, शतावर, रास्ना, पुनर्नवा-पवाङ्ग, केतकी की जड़ और पुष्प, दशमूल के प्रत्येक द्रव्य, नोम की छाल प्रत्येक ५ सेर,
१ वातरोग निहन्त्याशु मन्यास्तम्भ नियच्छति । - हनुस्तम्भविकारञ्च जिह्वादन्तगलग्रहान् ॥ प्रमेहान् विशति हन्ति गात्रकम्पादिक जयेत् । एतान् हरति रोगाश्च तैल माषवलादिकम् ॥ (भै र.) २ मासमेकं पिदेद्यस्तु यौवनस्थ पुनर्भवेत् । '
सिद्धार्थकमिदं ख्यात नरनारीहिताय वै ।। भ० र० ॥ ३० भि० सि०