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चतुर्थ खण्ढ : चौतीसवाँ अध्याय
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यची, कूठ, सनाय, हरड प्रत्येक २० - २० तोले लेकर ३२ सेर जल मे डाल कर तीन तुला ( १५ सेर ) पुराना गुड, धाय के फूलो का चूर्ण २॥ सेर, मुनक्का पौने चार सेर मिलाकर घृत सुगंधित भाण्ड मे भर कर सधिबंधन करके १ मास के लिये एकान्त स्थान में सुरक्षित रख दे । एक मास के अनन्तर छानकर मर्त्तबान मे भर कर रख ले | इसके सेवन से वातरक्त, रक्तदुष्टि प्रमेह - पिडिका एव विविध प्रमेह रोगो मे लाभ होता है । सेवनविधि-भोजन के वाद २ चम्मच समान जल के साथ मिलाकर ।
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प्रमेहमिहिर तैल - सौफ, नागरमोथा, हरिद्रा, दारुहरिद्रा, मूर्वामूल, कूठ, अश्वगंधा, श्वेत चदन, लाल चन्दन, हरेणुका, कुटकी, मुलैठो, रास्ना, दालचीनी, इलायची, ब्रह्मदण्डी ( भारगी ), चव्य, धनिया, इन्द्रयव, करंजवीज, तगर, तेजपात, त्रिफला, नालुका, गधवाला, वला एव अतिवला की जड, मजीठ, सरल काठ, पदुमकाठ, लोध, छोटी सौफ, वचा, जीरा, खस, जायफल, अडूसा, तगर प्रत्येक १ - १ तोला लेकर पानी से पीस कर क्ल्क बना ले । पश्चात् तिलतैल तथा शतावरी का कषाय प्रत्येक १२८ तोले ( या १-१ सेर ), लाक्षा क्वाथ तथा दही का पानी ४-४ सेर और दूध १ सेर । यथाविधि कडाही में अग्नि पर चढाकर पाक करे । विविध प्रकार के जीर्ण ज्वर, हस्त पादादि - दाह, क्षीणेन्द्रियता, ध्वजभग आदि उपद्रवो मे अभ्यग से लाभ होता है ।
वानिक शुक्रक्षय या स्वप्नदोप - युवावस्था मे अविवाहित व्यक्तियो मेनिद्रा मे शुक्र-क्षय होना बहुलता से पाया जाता है । सोलह वर्ष को आयु के अनन्तर पुरुषो मे प्रजननसम्बन्धी अवयवो का जैसे अण्ड, शुक्रग्रंथि, पौरुपथि आदि की क्रिया प्रारंभ हो जाती है-फलत पुरुषत्व का आगमन, कामवासनावो की वृद्धि, प्रजनन अंगो के विकास के माथ शुक्रक्षय की प्रवृत्ति भी जागृत होती है । इसके परिणामस्वरूप निद्राकाल मे शुक्रक्षय का होना भी स्वाभाविक रहता है । इस अवस्था को स्वप्नदोष या स्वाप्निक शुक्रक्षय कहते है ।
पालन प्राय कठिन होता है ।
इस आयु मे शुक्र -सरक्षण या ब्रह्मचर्य का प्राचीन युग मे ऋपियो ने ब्रह्मचर्य के पालन के लिये बहुविध साधन बतलाये है, जैसे- गुरुकुल में वास, तपोवन, सध्योपासन, परिश्रम का जीवन, सीमित रूक्ष सात्त्विक आहार, स्वल्प निद्रा, श्रृगार-साधनो का जैसे तैलाभ्यग, केशप्रसाधन, सुखासन-सुखशय्या आदि का परिहार, स्त्री के सभापण - दर्शन आदि से दूर रहना, इन नियमों के अनुसार रहते हुए ब्रह्मचर्य भी सभव है । परन्तु, आज के युग मे इसके ठीक विपरीत वातावरण से होकर युवक को गुजरना पडता है । फलत. वीर्य की रक्षा करना अथवा ब्रह्मचर्य का पालन वडा दुर्घट हो जाता है ।
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३१ भि० सि०