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चौतीसवाँ अध्याय
प्रमेह प्रतिपेध प्रावेशिक-अश्मरी, मूत्राघात एवं मूत्रकृच्छ्र के पश्चात् मूत्र रोगो मे दूसरा अध्याय प्रमेह का पाया जाता है। प्रमेह शब्द को शाब्दिक व्याख्याप्रकण-प्रभूत-प्रचुर वारंवार-मेहति मूत्रत्याग करोति यस्मिन् रोगे स प्रमेह । अर्थात् जिम रोग मे अत्यधिक या बार बार मूत्रत्याग ( Frequeny, of micturation or Total out put of urine increased) atar ē अथवा मूत्र मे आविलना-गदलापन (Turbidity) पाया जाता है, उस रोग को प्रमेह कहते है। इन सभी प्रमेहो मे मूत्र-सस्थान की विकृति पाई जाती है। विकृति की विभिन्नता के अनुसार प्रमेह के लक्षणो मे भी भेद पाये जाते है और विशिष्ट लक्षण मिलते है।
आचार्य वाग्भट ने लिखा है कि वस्तुत 'मूत्र की अधिकता और गदलापन सभी प्रमेहो का सामान्य लक्षण है । सभी प्रमेहो में दोप एव दूष्य के समान रहने पर भी उनके सयोग विशेष के कारण मूत्र के वर्ण, गध, स्पर्श आदि भेदो से प्रमेहो के अनेक भेद हो जाते हैं।
सामान्य दोप, दूष्य तथा मेहों के भेद-प्रमेह एक त्रिदोपज व्याधि है । दोपो को उल्वणता या अविकता के अनुसार वातिक, पैत्तिक एवं श्लैष्मिक भेद किये जाते है । प्रमेह की उत्पत्ति मे दूष्यो की समानता पाई जाती है। दूष्यो मे मेद, रक्त, शुक्र, जल, वसा, लसीका, मज्जा, रस, मोज तथा मास शरीर के धातु, दूष्य वनते है । इन दोप एव दूष्यो की विकृति के प्रभाव से दोषभेदो के अनुसार कफज दश (उदकमेह, इक्षुमेह, सान्द्रमेह, सुरामेह, पिष्टमेह, शुक्र१ सामान्य लक्षण तेषा प्रभूताविलमूत्रता। दोपदण्याविशेषेऽपि तत्सयोगविशेपत ॥ मूत्रवर्णादिभेदेन भेदो मेहेषु कल्प्यते । सूत्राघाता प्रमेहाश्च शुक्रदोषास्तथैव च ।। - मूत्रदोपाश्च ये वापि वस्तौ चैव भवन्ति हि । २. कफ सपित्त. पवनश्च दोपा मेदोऽस्रशुक्राम्बुवसालसीका ।
मज्जारसौज पिशित च दुष्या प्रमेहिणा विशतिरेव मेहा ॥ ३६ भि० सि.