________________
५६२
भिपकर्म - सिद्धि
मेह, शीतमेह, सिकतामेह, गनैर्मेह, लालामेह ) पित्तज छ ( चार-काल-नील-रक्तमाजिष्ठ- हारिद्रमेह ) तथा वातज चार ( वसा - मज्जा - हस्ति - मधुमेह ) एवं कुल मिलाकर वीस प्रकार के प्रमेह होते हैं ।
प्रमेह रोग मे विशिष्ट हेतुओ के अनुसार ये भेद बतलाये गये है । सामान्यतया भी कुछ हेतु प्रहो की उत्पत्ति मे भाग लेते हैं । ये सामान्य हेतु कफ दोप तथा कफ दोष से समता रखने वाले दूष्यो को विकृत करके रोग की उत्पत्ति कराते है -- जैसे गुदगुदे विस्तर पर निश्चेष्ट शारीरिक परिश्रम से विमुख होकर आराम से पड़े रहना, अधिक बैठे रहने का व्यवसाय, निश्चिन्त होकर अधिक सोना, दही का अधिक सेवन, ग्राम्य ( पालतू जीवो के मास ), मछली आदि जल-मास तथा भैसा, शूकरप्रभृति आनूपदेशज प्राणियो के मासो का सेवन, दूध तथा दूध से बने रबडी, मलाई आदि का अधिक उपयोग, गुड तथा गुड के बने पदार्थ मिश्री, चीनी, खाड आदि का सेवन, नवीन पैदा हुआ अन्न और पान का सेवन सभी कफवर्धक आहार प्रमेह के उत्पादक होते हैं । ' ( Rich & fatty diet & Sedatary life).
साध्यासाध्यता- इन बीस प्रकार के मेहो मे कफज मेह साध्य, पित्तज मेह याप्य तथा वातज मेह असाध्य होते हैं । साध्यासाध्यता की उपपत्ति मे प्राचीन ग्रथकारो ने यह बतलाया है कि कफज मेहो मे दोप ( कफ ) एव दृष्य (मेदादि) की समानता है दोनो के प्रतिकार मे कटु, तिक्त आदि रसो का प्रयोग हितकर होता है । अस्तु, समान क्रिया से दोप एव दृष्य दोनो का शमन करना सभव रहता है । अस्तु, सभी साध्य होते है । वित्त मेहो मे पित्त दोष एव दृष्य पूर्ववत् मेदादि होते है । इस प्रकार दोप और दृष्यो को एक ही क्रिया नामक नही होती है । प्रत्युत विपरीत पडती है । जैसे पित्तहर जो मधुरादि रसवाले द्रव्य है वे मेद के वर्द्धक होते है-और मेदोहर कटुकादि उपचार पित्त के बढाने चाले पडते है । अस्तु, क्रिया की विषमता उत्पन्न हो जाती है फलतः पित्तज मेह मुखसाध्य न रहकर याप्य हो जाते है । वातज मेहो मे मज्जादि गम्भीर धातुओ. का नाश होने से बहुत से उपद्रव खडे हो जाते है । रोग भी शीघ्र विनाशकारी हो जाता है अतएव वातज मेह असाध्य होते है |
।
१. आस्यासुख स्वप्नसुसं दधीनि ग्राम्योदककानूपरसा पयासि । नवान्नपान गुडवैकृतञ्च प्रमेहहेतु. कफकृच्च सर्वम् ।। ( वा. नि. १०)
२. साध्याः कफोत्या दश पित्तजा पद्याप्या न साध्य पवनाच्चतुष्क. । समक्रियत्वाद् विषमक्रियत्वाद महात्ययत्वाच्च यथाक्रमं ते ॥ ( च चि. ६.)