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द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय १४६ था वह सरसो का दाना जाने योग्य रहता था। इसके मूल भाग मे चमडे की थैली लगी रहती थी, जिसमे चार तोले द्रव आ सकता था। स्त्रियो मे उत्तर वस्ति की नली १० अगल लम्बी होती थी और उस नली का मुख ऐसा होता था जिसमे मूंग की दाल जा सकती थी।
__ आज कल ऐसी पिचकारी काँच, प्लास्टिक या धातु की बनी आती है जिसको (Urethral syringe) कहते है । यह बीच मे पोली होती है, अग्न भाग मे एक फूल के वृन्त के आकार का एक नौजल लगा रहता है, जिसका प्रवेश मूत्र या योनि मार्ग मे कराया जाता है । मूल भाग मे एक पिस्टन लगा रहता है जिमको दवा कर पिचकारी के अन्दर के द्रव का प्रवेश कराया जाता है । प्राचीन वस्ति यन्त्र का प्रतिनिधि आज कल का 'हुस्टन वाल्भ सिरिज' है, जिससे यथावश्यक मूत्रमार्ग या योनिमार्ग से औषधि का प्रवेश कराया जा सकता है। स्त्रियो के योनि-प्रक्षालन का कार्य तो साधारण वस्ति यन्त्र द्वारा भी हो सकता है परन्तु पुरुपो मे मूत्र मार्ग के प्रक्षालन के लिए धातु की बनी पिचकारी ही है।
पुरुषो मे उत्तर वस्ति देने की विधि रोगी को स्नेहन तथा स्वेदन देकर वायु-मूत्र-मल का त्याग करके आशय के ढीला होने पर घृत और दूध मिलित यवागू को यथाशक्ति पिला कर, घुटनो के वरावर ऊंची चौकी पर सहारा ( तकिया) लगाकर विठाए। गरम तैल से वस्ति शिर को भली प्रकार मल कर इसको मूत्रनाली को प्रहर्षित ( उत्तेजित ) करके समान रूप मे रखकर-प्रथम शलाका से मार्ग की परीक्षा करके, पीछे से घी से स्निग्ध किए नेत्र को धीरे-धीरे ६ अंगुल प्रविष्ट करे। कई आचार्य मेहन के वरावर प्रविष्ट करने के लिए कहते है । फिर वस्ति को दवाए और धीरे से नेत्र को निकाल ले। फिर स्नेह के वापिस आने पर सायकाल मे बुद्धिमान वैद्य दूध, यप या मासरस से मात्रा मे रोगीको भोजन करावे। इस विधि से तीन या चार वस्ति देवे।
स्त्रियो मे उत्तर वस्ति देने की विधि ___अशुद्ध रक्तस्राव के पश्चात् अर्थात् चौथे दिन से प्रारम्भ कर सोलहवे दिन तक शुद्ध ऋतु काल कहलाता है। इस काल मे योनि और गर्भाशय का मख खुला रहता है जिससे वस्ति द्वारा औपधियो के प्रयोग किए जाने पर उनके गणो का ग्रहण सम्भव रहता है अतएव सदैव ऋतु काल मे ही वस्ति देने का विधान स्त्रियो मे है । आत्ययिक अवस्था मे जैसे योनिभ्रश, शूल या योनिरोगो मे या रक्त प्रदर मे विना ऋतु काल के भी उत्तर वस्तियां दी जा सकती है।