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द्वितीय खण्ड : द्वितीय अध्याय
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दवाकर गोपधि द्रव का प्रवेश कराया जाय तो द्रव के कण्ठ तक पहुँचने का भय रहता है। यदि मोपधि द्रव बहुत ठण्डा हुआ तो उससे जकडाहट और विदाह को बागका रहती है । यदि बहुत उष्ण हुमा तो उससे रोगो मूच्छित हो जाता है । यदि ओपधि द्रव बहुत स्निग्ध हुआ तो उनमे शरीर मे जकडाहट आ जाती है। यदि बहन रूम हुग तो उससे वायु की वृद्धि होती है । यदि द्रव बहुत पतला हुआ या उनमे लवण (नमक) की मात्रा कम हुई तो उससे औपधि हीन मात्रा (under dose) हो जाती है । यदि बहुत सान्द्र (Concentrated ) हुआ तो उसमें ओपथि के अतियोग (Orver dose) होने का भय रहता है, साथ ही इससे रोगी नाम ( Depressed ) हो जाता है और गुदा मे अन्त.प्रविष्ट द्रव्य भी देर में निकलता है। यदि द्रव मे अधिक मात्रा मे नमक छोडकर उसे साद्र कर दिया गया हो तो रोगी में जलन और पतले दस्त प्रभृति उपद्रव हो जाते है । अत एव इन बातो का विचार करते हुए युक्तियुक्त मात्रा मे वस्ति का प्रयोग करना चाहिए। सम्यक् प्रकार का वस्ति प्रयोग :
उपर्युक्त प्रसङ्गो का ध्यान रखते हुए यथाविधि वस्ति का प्रयोग करना चाहिये। वस्ति का प्रयोग अधोवस्ति (गुदा मार्ग से), उत्तरवस्ति (मूत्र या योनि मार्ग) से कई बार इन मार्गों के प्रक्षालन की दृष्टि से ( Douche) अथवा पोषण के विचार से ( Nutrient Enemata) के रूप में किया जाता है। वस्ति के देने के पूर्व या पश्चात् वायु से बुलबुलो का प्रवेश (Air Bubbles) न हो नके इस बात का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए । क्योकि वायु के आशय मे प्रविष्ट होने से तीव्र उदरशूल होने लगता है । वस्ति देते समय पूरा द्रव का प्रवेश न करा के किंचित् शेप रख लेना चाहिए-'सावशेष च कुर्वीत अन्ते वायुर्हि तिष्ठति ।'
वस्ति द्रव बनाने की एक सामान्य विधि पहले यथावत् मात्रा मे मधु, सेंधा नमक और स्नेह को छोड कर मथे । पश्चात औपवि का कल्क डाले और मथे। पश्चात् जल छोडकर मथे। इस प्रकार से मथ के द्वारा मथित घोल (Emulsion ) को वस्ति की विधि से उपयोग मे लावे। एक सामान्य वस्तियोग में सैधव नमक ३ माशे और मधु ६ माशे लेकर खरल करे पुन. उसमे नारायण या माष तैल ४ तोले मिलाकर घोटे फिर दशमल क्वाथ १ पाव मिलाकर घोल बनाकर गुदा मार्ग से वस्ति देनी चाहिये । प्राचीनकालीन वस्ति यन्त्र का आधुनिक प्रतिनिधि :
__ आज के युग मे वस्ति कर्म के लिए कई प्रकार के यन्त्र व्यवहृत होते है । जिनमे अधिक प्रचलित निम्नलिखित तीन है।