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भिषक्कर्म-सिद्धि
इसमे एव या ही शब्द के कथन से निदान सम्प्राप्ति तथा उपशय तीनो से लक्षण की अतिव्याप्ति दूर हो जाती है । क्यो कि निदानादि तीनो भावी तथा वर्तमान दोनो प्रकार के व्याधियो के बोधक होते है, परन्तु पूर्वरूप केवल भावी व्याधिका ही बोधक होता है । यहाँ पर कुछ उदाहरण देना अपेक्षित है कि किस प्रकार से निदान उपशय एवं वर्त्तमान दोनो प्रकार की व्याधिका का बोध कराते है ( मृद् भक्षणभाविपाण्डुरोग का बोधक | वर्त्तमान् पाण्डु रोग का बोधक | भावि वातिक ज्वर का बोधक |
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निदान २ मृद्भक्षण से रोगवृद्धि
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- जृम्भायुक्त ज्वर मे घृतपान - ( संधिवात एव आमवात मे
उपशय / तैलाभ्यग—
(विषम ज्वर मे क्विनीन
वर्त्तमान् आमवात का वोधक विषम ज्वर का बोधक |
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[ वसन्तऋतु तथा प्रात काल - कफजरोगकी उत्पत्ति अथवा प्रकोप या वृद्धि | शरदऋतु तथा मध्याह्न–पित्तज रोग की उत्पत्ति अथवा प्रकोप या वृद्धि | वर्षाऋतु तथा सायाह्न - वातिक रोग की उत्पत्ति अथवा प्रकोप या वृद्धि सम्प्राप्ति २ भावी एवं वर्त्तमान व्याधि का ज्ञान संभव रहता है । इन सम्प्राप्तियो से | रोग का भविष्य मे होने का अनुमान तथा वर्त्तमान मे होने पर ज्ञान | सभव रहता है । अत सम्प्राप्ति भी भावी एव वर्त्तमान दोनो प्रकार ( के व्याधि का बोधक होता है ।
( केवल वर्त्तमान व्याधि का बोधक होता है । इस प्रकार रूप से भी रूप २ पार्थक्य पूर्वरूप के लक्षणो मे एव शब्द जोड़ने से हो जावेगा । क्योकि ( केवल भावि व्याधि बोधक लिङ्ग को ही पूर्वरूप कहेंगे ।
अव पुनः शका होती है कि कई बार पूर्वरूप का स्मरण वर्त्तमान् व्याधि का निश्चय कराने मे सहायक होता है तो फिर पूर्वरूप भी इस प्रकार वर्तमान व्याधि का बोधक हो जावेगा ? तव तो उपर्युक्त पूर्वरूप का लक्षण निर्दुष्ट नही हो सकेगा ? रक्तपित्त तथा प्रमेह का सापेक्ष्य निश्चय ( Differential Diagnosis ) वतलाते हुए चरक की उक्ति हैहारिद्रवर्णं रुधिरं च मूत्रं विना प्रमेहस्य हि पूर्वरूपम् । यो मूत्रयेत्तं न वदेत् प्रमेहं रक्तस्य पित्तस्य हि स प्रकोपः ॥
अर्थात् प्रमेह के पूर्वरूपो के अभाव मे यथा “ दन्तादीना मलाढ्यत्व प्राग्रूपं पाणिपादयो, दाहरिचकण्णता देहे तृट् स्वाद्वास्य च जायते ।' हल्दी के रंग के पीले या सरक्त मूत्र को देखकर रक्त पित्त रोग का प्रकोप समझना चाहिए । इस सूत्र