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चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय
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नवज्वर मे वर्जनीय आहार विहार - तरुण ज्वर मे दिन का सोना, स्नान, तेल की मालिश, गुरु अन्न का सेवन, क्रोध, पूर्व दिशा की वायु का सेवन, अनेक प्रकार के व्यायाम और कपाय का प्रयोग करने वाला वैद्य अपने हाथ से सोते हुए कृष्ण सर्प को जागृत करता है । क्योकि कपाय-पान से क्षुभित हुए दोपो का शमन करना कठिन हो जाता है ।
नवज्वर में दिन में दो वार भोजन नही देना चाहिये । कफवर्धक, भारी एवं रस-वाहक नोतो का अवरोव करने वाले अभिष्यन्दी आहार - जैसे- दही, उडद प्रभृति पदार्थों को नही देना चाहिए। ऐसे ही गुरु पदार्थ घृतपक्व आहार, गोधूम के देर मे पचने वाले भोजन तथा रात मे (खासकर ९ बजे के बाद) भोजन देना निषिद्ध है ।
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शीतल
स्त्री
इसी प्रकार स्नान, प्रदेह ( अगुरु- चदन आदि का शरीर में लेप ), जल का परिपेक, वमन विरेचन आदि से देह का संशोधन, दिन मे शयन, सग, विविध प्रकार के शरीर के आयासजनक व्यायाम, कच्चे ठडे जल का पीना, हस्त-पादादिका प्रक्षालन, किसी कारणवश क्रोध करना, हवा के झोके मे सोना, बैठना, घूमना आदि का, गरिष्ठ (देर मे पचने वाले ) भोजनो का वर्जन करना चाहिये । जैमे - दूध, घी, दाल, मास, छाछ, मदिरा, मीठे और गुरु पदार्थ ।
ज्वर से मुक्त होने के अनन्तर भी रोगी को जब तक पूर्ववत् वल का अनुभव न होने लगे, तब तक व्यायाम, मैथुन, स्नान और अधिक टहलना ये चार कर्म नही करने चाहिये ।
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१ स्नान विरेक सुरत कपायो व्यायाममभ्यञ्जनमह्नि निद्राम् । दुग्ध घृत वैदलमामिप च तन सुरा स्वादु गुरु द्रवञ्च ॥ अन्न प्रवात भ्रमण रुपाञ्च त्यजेत्प्रयत्नात् तरुणज्वरार्त्त । नवज्वरे दिवास्वप्रस्नानाभ्यङ्गान्नमैथुनम् । क्रोधप्रवातत्र्यायामकपायाश्च विवर्जयेत् ॥
न द्विरद्यान्न पूर्वाहणे नाभिष्यन्दि कदाचन । न नक्त न गुरुप्राय भुञ्जीत तरुणज्वरी ॥ ( भै र ) सज्वरो ज्वरमुक्तश्च विदाहोनि गुरुणि च । असात्म्यान्यन्नपानानि विरुद्धानि विवर्जयेत् ॥ व्यायाममतिचेष्टा च स्नानमत्यशितानि च ।
तथा ज्वर शम याति प्रशान्तो जायते न च ॥ व्यायाम च व्यवाय च स्नान चक्रमणानि च । ज्वरमुक्तो न सेवेत यावन्न वलवान् भवेत् ॥ चचि ३