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भिपकर्म-सिद्धि सामान्य ज्वर में रसौषधियॉ-काठीपधियो से चिकित्सा करते हुए उपर्युक्त वहुविध विचारणावो की आवश्यकता रहती है, परन्तु रमोपचियो के प्रयोग में रोगी, रोग, दोप, दूष्य, देश, काल प्रभृति वातो के परिज्ञान की अपेक्षा नही रहती है। क्योकि रस-चिकित्सा अचिन्त्य भक्ति से युक्त होती है। रसचिकित्सा की प्रशंसा मे हम लोग पूर्व में देख चुके है कि १ 'उत्तमो रमवैद्यस्नु २ 'अल्पमात्रोपयोगित्वादरुचेरप्रमगत ! क्षिप्रं च फलदातृत्वादोपविभ्योऽधिको रस ।। अर्थात् रस योगो को मात्रा अल्प होती है, अरुचि का प्रश्न नही उठता और शीघ्रता से रोगी को लाभ पहुचता है, अस्तु, काप्टोधियो से रसीपधियो की श्रेष्ठता स्वत सिद्ध है। फलत कपायादिके प्रयोग में जहां काल का विचार अपेक्षित रहता है जैसे नव ज्वर में 'कपायस्त्वष्टमेऽहनि, वहाँ पर रस योगो का प्रारभ से उपयोग किया जा सकता है। उसी प्रकार नव ज्वर में सामान्यतया दूध का निपेव पाया जाता है, परन्तु रस योगो के उपयोग मे नव ज्वर में दूध का निपेध उचित नही प्रतीत होता है क्योकि रस योगो में अधिकतर विपो का उपयोग पाया जाता है , अस्तु क्षीर विषघ्न हो कर इस काल में अनुकूल या पथ्य के रूप में गृहीत हो सकता है। भैषज्यरत्नावलीमे उक्ति मिलती है
न दोषाणां न रोगाणां न पुंसां च परीक्षणम् ।
न देशस्य न कालस्य काय रसचिकित्सिते ।। फलत. सम्पूर्ण शास्त्र का जानने वाला ही क्यो न हो यदि रसचिकित्सा का जानकार नही है तो वह उसी प्रकार उसहास का पात्र है जिस प्रकार धर्माचरण से होन पण्डित ।
'सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो न जानाति रसं यदा ।
सर्व तस्योपहासाय धर्महीनो यथा बुध. ।' मग्रह ग्रथो में बहुत सा रस के योगों उल्लेख पाया जाता है, कुछ एक अनुभवसिद्ध योगो का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है ।
मृत्युंजय रस-गुढ वत्सनाभ चूर्ण १ भाग, मरिच चूर्ण १ भाग, पिप्पली चूर्ण १ भाग, शुद्ध गधक १ भाग, शुद्ध सुहागा १ भाग, शुद्ध हिंगुल २ भाग। आईकस्वरस में घोट कर १-१ रत्ती की गोली बना लें। वात ग्लैष्मिक ज्वर या विदोपज ज्वर में। अदरक के रस एवं मधु से उपयोग करे। एक पाठ कृष्ण मृत्यु जय का भी है जिसमे हिंगुल के स्थान पर कज्जली का प्रयोग किया जाता है।
२ हिंगुलश्वर रस-पिप्पली चूर्ण, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध वत्सनाभ विप । इन तीनो को खरल में डाल कर महीन पीस कर रख ले। माया रत्ती से, अनुपान आईक स्वरस और मधु । वातिक ज्वरमें लाभप्रद ।