________________
' भिपकर्म-सिद्धि दीपनः पाचनैः सिद्धाः स्नेहाश्चानेकयोनयः ।
विशेपान्मेध्यपिशितरसतैलानुवासनम् ॥ पित्तस्कंध-पित्त के गुण-स्निग्ध, उष्ण, तीक्ष्ण, द्रव, मर, अम्ल और कटु इन गुणो से युक्त पित्त होता है । जो रुक्ष, गीत, मृदु, सान्द्र, स्थिर, मधुर, तिक्त और पाय रस वाले द्रव्यो के उपयोग से शान्त होता है।
सस्नेहमुप्णं तीक्ष्णश्च द्रवमम्नं सरं कटु ।
विपरीतगुणः पित्तं दव्यराशु प्रशाम्यति ।। पित्त-प्रकोप के कारण-कटु, अम्ल, उष्ण, विदाही, तीक्ष्ण एवं लवण रस पदार्थों के सेवन, क्रोध, उपवास, वूपका सेवन, स्त्रीसंग, तिल, अतसी, दधि, मत्स्य, मद्य, सुरा, गुक्त (काजी) के अधिक सेवन से तथा भोजन की पच्यमानावस्या, गरद् ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, मध्याह्न तथा अर्ध-रात्रि के काल में पित्त का कोप होता है । चिकित्मा में इन कारणो का परिहार करना चाहिये ।
कटवालोष्णविवाहितीक्ष्णलवणक्रोधोपवासातपसोसम्पर्कतिलातसीदधिसुराशुतारनालादिभिः ... । मुक्त जीर्यति भोजने च शरदि ग्रीष्मे सति प्राणिनां
मध्याह्न च तथाऽर्द्धरात्रिसमये पित्तं प्रकोपं ब्रजेत् ।। प्रकुपित पित्त के लक्षण-फोडो का निकलना, मुंह का खट्टापन, बुवाई डकार माना, प्रलाप, पसीने का निकलना, शरीर में दुर्गन्ध का होना, फट जाना, नगा होना, घाव का गीघ्रता से फैलना, पकना, बेचैनी, प्यास का विशेष लगना, चक्कर, गर्मी का अनुभव, तृप्ति का होना, जाठराग्नि का दीप्त होना, आंख के आगे अंधेरा छाना, जलन, क्टु-अम्ल-तिक रसमय मुँह का स्वाद हो जाता है। गरीर के वर्ण का पीला होना, एव खोलने के नमान प्रतीत होता ये पित्त के
विस्फोटाम्लकधूमकाः प्रलपनं स्वेदतिर्मुर्छनं
दीगन्व्य दरणं मदो विसरणं पाकोऽरतिस्तृभ्रमौ । ऊप्मा तृप्तितमःप्रवेशदहनं कट्वालतिक्ता रसा
वर्गः पाण्डुविवर्जितः कथितता कर्माणि पित्तस्य वै ॥ पित्तोपक्रम-वृतपान, मधुर एवं शीतवीर्य की ओपधियाँ, रेचन, मधुर, तिक्त एवं कपाय रमवाला भोजन तया ओपध, मुगंधित, ठडे एवं हृदय को प्रिय लगने वाले इत्रों एवं पुष्पो का धारण, गले में माला (हार) का पहनना, वन स्थल पर मणियो का वारण, वार-बार कपूर, चंदन, खस का अनुलेपन, मायंकाल, चन्द्रमा की चाँदनी का सेवन, चूना से पते हुए स्वच्छ महल की छत पर रहना,