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तृतीय खण्ड : तृतीय अध्याय १८७ रूक्षक्षोभकपायतिक्तकटुकैरेभिः प्रकोपं व्रजेद् वायुारिधरागमे परिणते चान्नेऽपराहेऽपि च ॥ वायुवृद्धि में होने वाले लक्षण-पेट का फूलना, जकडाहट, रूक्षता, फूटना, मयने के ममान प्रतीत होना, हलचल, कांपना, सूई चुभोने के समान प्रतीत होना, गले में ठनका लगना, गले का बैठना, थकावट, विलाप करना, सरकना, पोडा होना, विदीर्ण होना, कठोरता, कान मे शब्द का होना, भोजन का विषम पाक होना, गिरना, दृष्टि का विनम, फरकना, इधर उधर पलटना, मुरझा जाना, अनिद्रा, मारने के समान पीडा, दबाने के समान पीडा, नीचे झुकाना, ऊपर उठाना, मन की सिन्नता, चक्कर, जंभाई, रोमाञ्च, विक्षिप्त होना, हाथ-पैर का वार-बार फेका जाना, सूचना, जकडना, पोलापन, काटने के समान पीडा, लपेटने के समान प्रतीत होना, वर्ण का श्याम या लाल होना, तृपा, निद्राभग, निद्रा, तद्रा, मुंह का स्वाद कपाय प्रभृति लक्षण प्रकुपित वात मे होते है । चिकित्सा मे इन कारणो का परिहार करना चाहिये ।
आध्मानस्तम्भरौक्ष्यं स्फुटनविमथनक्षोभकम्पप्रतोदाः कण्ठध्वंसावसादौ श्रमकविलपनसंसशूलप्रभेदाः । पारुष्यं कर्णनादो विपमपरिणतिभ्रंशदृष्टिप्रमोहाविस्पन्दोद्घट्टनानि ग्लपनमशयनं ताडनं पीडनञ्च ।। नामोन्नामो विपादो भ्रमपरिपतनं जम्भणं रोमहर्पो विक्षेपाक्षेपशोपग्रहणशुपिरताच्छेदनं वेष्टनञ्च । वर्ण श्यावोऽरुणो वा तृडपि च महतीस्वापविश्लेपसना विद्यात् कर्माण्यमूनि प्रकुपितमरुतः स्यात् कपायो रसश्च ॥
उपक्रम-स्नेहन, स्वेदन, हल्का शोधन, मधुराम्ललवणरसमय भोजन, तेल की मालिश, देह का दवाना, वाँधना, सुखाना, वातघ्न औषधियो के पकाये जल से स्नान, पीठी तथा गुड के वने मद्य का सेवन, स्निग्ध तथा उष्ण द्रव्यो से सम्पन्न आस्थापन वस्तियो का उपयोग, वस्ति कर्म मे उक्त नियमो का पालन, आराम करना, दीपन, पाचन द्रव्यो से सिद्ध किये अनेक प्रकार के स्निग्ध द्रव्यो का उपयोग, विशेपत: मेधावर्वक मासरसो का सेवन तथा अनुवासन प्रभृति क्रियायें वातजन्य रोगो को चिकित्सा में व्यवहत होती है।
वातस्योपक्रमः स्नेहः स्वरः सशोधन मृदु। स्वादम्ललवणोष्णानि भोज्यमभ्यङ्गमदेनम् ॥ वेष्टनं वासनं सेको मद्यं पैष्टिकगौडिकम् । स्निग्धोष्णा वस्तयो वस्तिनियमाः सुखशीलता ॥