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भिपर्म-सिद्धि
हुए भी द्रव स्वरूप का होता है अस्नु वह अग्नि का नाग कर कर देता है। जैसे व स्वल्प प्रतप्त जल अत्युप्ण होने से अग्नि पर ठोडे जाने पर अग्नि को बुझा देता है। अब इस बंटे पिन से पात्रकाग्नि मद पड़ जाती है या बुझ जाती है। फलन आम टोप बढता है और ज्वरातिमार उत्पन्न हो जाता है । मन्नु चिकित्सा में लंधन-पाचन का कर्म श्रेष्ट रहता है।
क्रिया क्रम-१ ज्वरातिसार में प्रारंभ में लंघन और पाचन आम दोपो की प्रबलना को कम करने के लिये करना चाहिये । २ ज्वर और अतिसार की जो मिन्न भिन्न चिकित्सा कही गई है उन्ही दोनो क्रियाक्रमो के मिलित योगो का ज्वगतिसार की चिकित्सा में प्रयोग नहीं करना चाहिये क्योकि मिलित उपक्रम प्राय एक दूसरे के विरुद्ध पडते है बोर रोग को वहा देते है। जैस, प्राय स्वरहर बारधियाँ भेदत होती है फलन वरातिमार के रोगी में प्रयुक्त होकर अतिमार को बढा देंगी और अतिमार रोग में पठित बोपवियाँ प्राय. ग्राही या स्तंभक होती है जो जरातिमार में प्रयुक्त होकर अतिसार का निग्रह करके वर को बढा देगी । अन्तु जगनिमार की बिक्रिमा मे विशिष्ट उपक्रमो को लेकर चलना पड़ता है। जिनमें बर तथा अनिमार दोनो के लक्षणों का ज्ञाय माय गमन होता चले।' मन्चर प्रवाहिका में भी बरातिसारवत् ही क्रियाक्रम रखना चाहिये ।
: पया-लंघन करने के पश्चात ज्वरातिमार में पेयादि का क्रम हितकारी होता है । मत पृष्टपर्णी, बला, बिन्त्र के फलका गृढा, मोठ, कमल पत्र, धनिया इनकी ममभाग में लेकर एक तोला की मात्रा में लेकर बनीम तोले पानी में पकाकर बावा गेय रहने पर उतार कर छान ले। फिर इस पानी मे बान्य लाज या नण्डल का कण डाल कर पेवा बना कर उनमें थोडा अनार का रस या (अनारदाने का रस ) मिलाकर रोगी को पाने को दे।
८ नागरादि कपाय-नागर ( गुठी ), बतीय, मुस्तक, अमृता, चिगना, कुटज की छाल का कपाय-गवरातिसार का गामक होता है।
८ इन्द्रयव, देवदान, कुटकी और गज-पीपल क्या गोक्षुर, पिप्पली, धान्यक, वेत्र की मज्जा, पाग, तथा बजवायन का क्वाथ-ज्वरानिमार एवं दाह का शामक होता है।
१. वरातिमारिणामादी कुर्यात् लवनपाचने । प्रायस्तावामसम्बन्ध विना न भवतो यत ॥ अगतिनारिणा प्रोक्तं भेषज यत् पृथक्-पृथक् । न तन्मिलितयोः कार्यमन्योन्यं वयेद्यत. ॥ प्रायो उबरहरं मेदि स्तम्भनं बतिमारनुत । अतोऽन्योऽन्यविरहत्वाद् वर्धनं तन् परस्परम् ।। ज्वरातिमारे पेवादिक्रम स्वारलविते हित. ।