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चतुर्थ खण्ड : बाइसवॉ अध्याय
४२४ अनावश्यक है। क्योकि इस ज्ञान के अभाव मे चिकित्सक रोग के निदान मे, उसके शस्त्रसाध्य या औषधसाध्य होने में, लघु शल्यकर्म साध्य या वृहत्कर्म साध्य तथा संभाव्य माध्यासाध्य विवेक में अनभिज्ञ ही रह जायगा और उस अवस्था के अनुमार वैसे रोगी को उचित सलाह देने मे चूक जायेगा। रोगी की स्थिति के अनुसार उसे किसी शल्यकर्म-विशेपज्ञ, प्रसूति-विशेपन के उपचार के लिये अथवा यथोचित छोटे या बडे चिकित्सालय मे जाने के लिये प्रेरित करने मे उसका पूर्व पठित ज्ञान सहायक बनता है।
इसी तरह भूत-विद्या के जहाँ तक सामान्य ज्ञान का प्रश्न है-सभी कायचिकित्सक को जानना आवश्यक है। मान लें चिकित्सक को भूत-विद्या तत्र मे कुछ भी आस्था नही है वह उसको एक हास्यास्पद विषय या कपोलकल्पित अनावश्यक विवेचना समझता है। परन्तु यदि कोई व्यक्ति या रोगी भूत-प्रेत आदि बाधाओ से पीडित होकर उसकी चिकित्सा मे आता है तो क्या उसको मजाक कर टाल सकेगा। उसको वाध्य होकर आधिभौतिक उपचारो के साथ कुछ आधिदैविक उपक्रमो का भी शरण लेना पडेगा। देवव्यपाश्रय चिकित्सा वह या तो स्वयं करे अथवा उसके लिये किसी अन्य तंत्रज्ञ से सलाह लेने के लिये उपचार कराने के लिये भेज दे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक चिकित्सक को इन आध्यात्मिक या मानसिक विकारो तथा उनके उपचारो से अवगत होना वाछित है । इसी लिये सभवत आयुर्वेद के शास्त्रकारो ने भूत-विद्या की एक अन्यतम अंग के रूप मे व्याख्या की है।
जैसा कि ऊपर मे बतलाया जा चुका है कि आधियो मे सामान्य चिकित्सक को भी इन उपचारो का शरण लेना पडता है-जैसे आगन्तुक विषमज्वर, आगन्तुक या भूतोत्थ उन्माद, आगन्तुक अपस्मार या अपतंत्रक तथा बालरोगो को चिकित्सा मे बालग्रह आदि । अस्तु, एक सामान्य चिकित्सक ( General Practitioner ) को कुछ इस मंत्र शास्त्र के सामान्य बातो की जानकारी करना आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के लिए कुछ रोगो का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है।
नव प्रसूत वालको में कई प्रकार के रोग या लक्षण-समुदाय (Syndrome) प्रकट होकर उसकी दशा को साघातिक बना देते है । बोलने और दवा-दारू के सेवन मे असमर्थ बालक व्याकुल हो जाता है । चिकित्सक का भौतिक उपचार (marternalistic Treatment ) दुरूह हो जाता है और प्राय असफल ही पाया जाता है। बालक कुछ ही क्षणो मे अपनी जीवन-यात्रा समाप्त कर