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चतुर्थ खण्ड : अट्ठाइसवाँ अध्याय
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आमवात प्रवृद्धावस्था मे सब रोगो से अधिक कष्टप्रद एवं कष्टसाध्य हो जाता है। इसमे हाथ, पैर, सिर, गुल्फ ( Ankle ), त्रिक ( Sacrum ). जानु तथा ऊरु की संघियो मे पीडायुक्त शोथ पैदा होता है । इस रोग की उत्पत्ति में प्रधान भाग आम दोप का होता है, नाम दोष से एक प्रकार का अन्त' विष समझना चाहिये । शरीर से बहुविध त्याज्य पदार्थ मल-मूत्र एव स्वेद के जरिये निकल जाया करता है । वह क्वचित् न निकले तो शरीर के रक्त में आम दोप सचरित होकर बहुत प्रकार के रोग पैदा होते है । आमवात भी एक ऐसा ही रोग है । जिसमे आम दोष के साथ वायु का कोप पाया जाता है । अस्तु, इस रोग की चिकित्सा मे आम के पाचन एव निर्हरण के साथ साथ वायु के शमन की चिकित्सा करनी पडती है ।
आम बात में आम दोष जिन जिन स्थानो पर पहुचता है, उन उन स्थानों पर अर्थात् विविध शरीर की बडी बडी सधियो मे वृश्चिकदश के समान वेदना होती है । साथ ही साथ अग्निमदता, शरीर को गुरुता, ज्वर, उत्साह की कमी, पेशाब की अधिकता, निद्रानाश, तृपाधिक्य, हृदय प्रदेश मे पीडा या हृद्रोग तथा विबंध भी रोगी में उत्पन्न होता है ।
इनमे एकदोपज साध्य, द्विदोषज कृच्छू साध्य तथा त्रिदोषज या सर्वदेहज शोथ असाध्य होता है । यह रोग अधिकतर बाल्यावस्था मे या कम आयु के व्यक्तियो में होता है, वेदना भ्रमणशोल होती है-आज एक सघि प्रभावित है तो दो दिन के बाद दूसरी फिर दो दिनो के बाद तीसरी । पूर्व को प्रभावित सधि मे वेदना कुछ कम हो जाती है फिर नई संधि प्रभावित होती और उसमे वेदना, रक्ताधिक्य शोथ अधिक हो जाता है । इसमे शरीर के सभी वडी सधिय एक के बाद दूसरी शोथ और वेदना से युक्त होती चलती है । सधियो मे पूयोत्पत्ति प्राय नही होती है | १
क्रियाक्रम -- प्रमेह, वात एवं मेदो रोग मे कफ एव आम के पाचन के लिये जो उपचार बतलाये है । उन सबका आमवात रोग में प्रयोग करना चाहिये । २
१ अगमर्दोऽरुचिस्तृष्णा ह्यालस्य गौरव ज्वर । अपाक. शूनताऽङ्गानामामवातस्य लक्षणम् ॥ स कष्ट सर्वरोगाणा यदा प्रकुपितो भवेत् । हस्तपादशिरोगुल्फत्रिकजानूरुधिपु ॥ करोति सरुजं शोफो यत्र दोप. प्रपद्यते । स देशो रुजतेत्यर्थं व्याविद्ध इव वृश्चिकः ॥ मा. नि. ॥
२. प्रमेहवातमेदोनी रामवाते प्रयोजयेत् ॥ ( च. चि. )