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सिनकर्म-सिद्धि अपथ्य-गुरु-शीत-द्रव-अत्यन्त स्निग्ध, विरुद्ध एव असात्म्य भोजन, स्नेहन, वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन, रक्तनिहरण ये सब ऊरुस्तभ से पीड़ित मनुष्य के लिये अहितकर है।
एक समय अग्निवेश ने अपने गुरु आत्रेय से अपना संशय दूर करने के लिये पूछा कि-भगवन् आपने बतलाया है कि पंचकर्म सभी प्रकार के शरीर मे होने वाली व्याधियो को दूर करने में असमर्थ है तो फिर इस नियम के अपवाद रूप मे दोपज कोई ऐसा भी रोग है, जो साध्य होते हुए भी पचकर्म के उपचारो द्वारा ठीक नहीं हो सकता है ? गुरु ने संदेह का निराकरण करते हुए उत्तर दिया 'हाँ एक मात्र रुस्तम एक ऐसा रोग है।" जिसमे न स्नेहन करना चाहिये, न वस्ति और न विरेचन (वमन, रेचन एवं नस्य कर्म) कोई भी कर्म इसमे लाभप्रद नही होता है। प्रत्युत अपथ्य होते है।
अट्ठाइसवॉ अध्याय आमवात-प्रतिपेध
प्रावेशिक-आमवात एक बडा कष्टप्रद रोग ( Rheumatic and Rheumatoid Arthritis) है। इसमें रोगी के विभिन्न अगो मे विशेपत. संधियो मे पीडा होती है, अरुचि, प्यास, आलस्य, शरीर का भारीपन, ज्वर, भोजन का परिपाक न होना और अगो मे सूजन होना, ये आमवात के लक्षण है।
१ अग्निवेशो गुरुं काले सगय परिपृष्टवान् । भगवन् पंचकर्माणि समस्तानि पृथक् तया ॥ निर्दिष्टान्यामयाना हि सर्वेपामेव भेपजम् । दोपजोऽस्त्यामयः कश्चिद्यस्य तानि भिपग्वर ॥ न स्यु. शक्तानि शमने साध्यस्य क्रियया सत. । अस्त्यूरुस्तम्भ इत्युक्ते गुरुणा तस्य कारणम् ॥ तस्य न स्नेहन कार्य न वस्तिन विरेचनम् । सर्वो रुक्षक्रम. कार्यस्तत्रादौ कफनाशन ॥ पश्चाद् वातविनाशाय कृत्स्न कार्यः क्रियाक्रम. ॥ (भै. र.)