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भियधर्म-सिद्धि वियजातो यथा कीटः सरिपेण विपद्यते ।
नहन प्रकृतिभिर्दहन्तानलान्न वायते ॥ उन दोर या दृश्य-सुश्रुत ने रक्त को भी दोर माना है-टमका य, नो, ना, जानतगेमोत्ति और निहरण यदि का भी नागिन ही किया है। बावाट, धर्मदा जादि टीकाकारों ने नी कोर किया है। ऐसी मान्या में 'प्रत्यारम्भमन्य' ला के द्वारा
रचारन्हो पिया जाता है। चरक तथा वाग्भट ने केवल यानि कथा कही दोष माना है। अब जंग होती है कि रक्त दोष है पाहता मुक्तीन वचन रस का दोषत्व स्वीकार करते हुए पाये जाते
. नर्ने देहः कमादति न पित्तान्न च मान्नात् ।
शोणितादपि वा नित्यं देह एतैस्तु धार्यते ।। अफ बाते जितत्राय पिन शाणिनमेव वा।
यदि गति वातस्य क्रियनाणे चिकिलिते ।। यदोन्ट गन्य दोपन्य नत्र कार्य भिपन्जिनम् । व्यांच्यागिनगंगर रक्तपित्तदरी क्रियम् ।। म", निमायान पांचवें साय में नी रन केन्येि दोष गन्द
। न नीर जाकर पर रखनी दोर माना जाय :... - उन पर है कि दोरल मुदत यो अभिप्रेत नहीं rrr -
प्र में उन्होंने लिखा है-'गतपित्तम्नेमाग
माधीमयोनिवि गर्गरमिद घायने -
मिरवाच प्रियामाहा।' यहां पर रेवल बात, F.,
मा गई या नहीं। व्ययामी प्रमा
गिमगाटानविनयः मोममर्यानिला यथा। भारमन्नि जगाई कपापिनानिलालथा ।। मेरा नानदानाहान्य मिलता है। *: १६ गती। यदि में गत शनियों का .. .. for: - नतिर उन्ले नही मिन्ना
mपोटि में दगा मंगा • E 773, माना जी मना