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(२७ ) वह काल से विभिन्न विपरीत सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं का अपने में आत्मसात् करने में समर्थ रही है। इतिहास इस काल की साक्षी है, भारत की संस्कृति इसका ज्वलन्त प्रमाण है।
आयुर्वेद का प्रथम पाठ इन महान् आयुर्वेद का प्रथम पाठ ही आयुर्वेद के विकास की योजनाओं के साथ 'आयुवढोत्पत्ति व्याख्यास्याम" (सुश्रुत ) से शुरू होता है। अथवा यों कहें कि दीर्घ जीवन प्राप्त करने के विचार से प्रारम्भ 'अथातो दीर्घजीवतीयमायायं ब्यारयास्माम.' (चरक) कहते है। इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऋपितों को देवलोक तक की यात्रा करनी पड़ी थी-कितना दुष्कर कार्य था
कि करोमि क गच्छामि कथ लोका निरामयाः। भवन्ति सामयानेतान्न शक्नोमि निरीक्षितुम् ।। दयालुरहमत्यर्थ स्वभावो दुरतिक्रमः । एतेपां दु.खतो दुःखं ममापि हृदयेऽधिकम् ।
इति निश्चित्य भगवानात्रेयस्त्रिदशालयम् ।। (भै० र०) आज के युग मे दीर्घ जीवन के विकास की योजनाओं को लेकर देवलोक तक जाने की आवश्यकता नहीं है । इस लोक में आयुर्वेद का आनयन ऋपियों के द्वारा पूरा कर दिया गया है । इसके विकास के लिए भारत में ही क्वचित भारतेतर देशों से बहुत सी सामग्रियाँ उपलब्ध हो जाती हैं। उससे इस आयुर्वेद को विकसित या अधिक समृद्ध कर सकते हैं। वह सामग्री क्या है ? इसका उत्तर एक वाक्य में यही है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के साधनों को आत्मसात् करना, जो सम्प्रति वडा ही दुःसाध्य और कठिन प्रतीत होता है । दीर्घायुष्य का पाठ-ग्रहण आयुर्वेद का सर्वोपरि लक्ष्य है उसको छोडा नही जा सकता-समस्या जटिल, उसका समाधान और अधिक जटिल।
इस जटिल समस्या का सरल समाधान सामञ्जस्य में है। जिस प्रकार कुटी व्यवस्था और औद्योगीकरण दो विपरीत उपक्रमो का समाधान आधुनिक युग में देश के कर्णधार मनीपियों के द्वारा अपनाया जा रहा है। उसी प्रकार आयुर्वेदज्ञ को भी अपने कर्तव्यों का निर्वाह अपेक्षित है। दोनों का प्रश्रय समान रूप से देना-आद्योगीकरण भी चलता रहे और हठपूर्वक कटी-व्यवसायों की भी रक्षा की जाय, आयुर्वेद में नए-नए निदान और चिकित्सा के साधनो को अपनाते हुए हठपूर्वक दिव्य आयुर्वेद की रक्षा मे तत्पर रहना चाहिए । आयुर्वेद, कुटी-व्यवसाय और सनातन धर्म की रक्षा आज तक इसी वल पर हुई है। जे हठि राखे धर्म को तेहि राखे करतार' महामना परम पूज्य स्वर्गीय पडित मदनमोहन मालवीयजी का आदर्श ही इस विभीपिका से रक्षा कर