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________________ चतुर्थ खण्ड पंचम अध्याय २४३ यदि मियाद पूरी हो जाने के बाद भी मन्थर ज्वर न टूट रहा हो तो उसमे कफ का उपद्रव ( Lung complication ) की सभावना रहती है अस्तु तदनुकूल ज्वरार्यभ्र, रनसिन्दूर, शृग भस्म आदि का योग औपधि एव अनुपान मे करना चाहिये। कई वार विपम ज्वर का अनुवध भो ज्वर को टूटने नहीं देता है। उस अवस्था मे सुदर्शन चूर्ण (विषम ज्वर मे प्रोक्न) का फाण्ट बनाकर औपधि के सहपान रूप मे देना चाहिये । एतदर्थ सुदर्शन चूर्ण ३ माशे लेकर खोलते पानी मे चाय जमे बना लेना चाहिये और छानकर कई बार प्रधान औषधि के अनुपान रूप में देना चाहिये। यदि ज्वर कार में विवव हो तो 'ग्लिसरीन सपाजिटरी' (गुदवत्ति), या ग्लिसरीन मिरिन १ जोम ग्लिसरी गुदा मे चढाकर कोष्ठशुद्धि करनो चाहिये । काई में लवण जल को स्थापन वस्ति ( Enema) देने की भी आवश्यकता पडती है। भरसक कोई रेचक औषधि मुख से न देकर मुनक्का, अजीर, गुलकर, अगूर आदि मिलाकर हो रोगी को कोष्ठशुद्धि कर लेनी चाहिये। यदि रेचक देना ही हो तो अमल्ताग की गुद्दो ओपवि के अनुपान रूप मे देने से कार्य हो जाता है। तीन सप्ताह के अनन्तर रोग का क्रम चलता रहे तो रोगी को हल्का सुपाच्य पथ्य दते हुए जीर्ण ज्वरवत् चिकित्सा करनी चाहिये । पंचम अध्याय जीर्ण ज्वर प्रतिषेध तोन सप्नाह के बाद जो ज्वर गम्भीर धातुओ मे प्रविष्ट होकर मंद हो जाता है और जिसमे प्लीहावृद्वि या यकृत्वृद्धि हो जाती है, अग्नि मद हो जाती है उसे जीर्ण ज्वर कहते है ।' क्रियाक्रम-चिकित्सा सूत्र-क्षीर---जीर्ण ज्वर मे कफ के क्षीण हो जाने पर दूध अमृत के समान विशेप गुणकारी होता है। गोदुग्ध के अतिरिक्त बकरी १ त्रिसप्ताहाद् व्यतीते तु ज्वरो यस्तनुता गत । प्लीहाग्निसाद कुरुते स जीर्णज्वर उच्यते ।।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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