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भिपकर्म-सिद्धि प्रायः सभी मदात्यय सान्निपातिक या त्रिदोपज होते है, इनमे रूप की विशेपता वातिक, पत्तिक, श्लैष्मिक प्रभृति भेद से करना होता है । मदात्यय में जिम दोप की विशेषता हो उसके अनुसार उपचार का प्रारम करना चाहिए। फिर भी लेप्माविक्य में प्रथम श्लेष्म दोप के शमन के उपचार तदनन्तर पित्त तथा वात के शमन के लिए उपचार करना चाहिए।
मदात्यय नामक व्याधि मिथ्या, अति या हीन मात्रा में मद्य के पीने से पैदा होती है । अन्तु, मद्य के सम मात्रा में प्रयोग करने से वह ठीक होता है। मद्योत्य रोग के गमन के लिए मद्य का ही प्रयोग पिलाने के लिये करना चाहिए ।
फिर रोग के हल्का होने पर अन्न में रुचि पैदा होने पर हितकर आहार-विहार कराना चाहिए ।
यदि मद्य का उपक्रम प्रारम मे अनुकूल न पडे तो मदात्यय के रोगी को प्रारंभ मे लघन कराके कफ के क्षीण हो जाने पर प्रचुर मात्रा में गाय के दूध का पान कराना चाहिए। क्योकि दूध मोज के समान गुण वाला है और मद्य ओज के विपरीत गुण वाला होता है । अस्तु, दूध का प्रयोग करके जब रोगी का बल बढ जावे तो दूध को बंद करके अल्प मात्रा में मद्य पिलाना प्रारंभ करना चाहिए।' क्रियाक्रम
वातज मदात्यय में काला नमक, शुण्ठी, मरिच, छोटी पोपल से युक्त मय का जल मिश्रित करके हल्का करके पिलाना ।
पित्तज मदात्यय में-बट शुग के हिम, शर्करा से युक्त मद्य पिलाना चाहिए । यामला, खजूर, मुनक्का मोर फालसा का उपयोग हितकर होता है।
श्लेष्मज मदात्यय सेवामक योगो के साथ मद्य पिलाकर वमन करावे । वल के अनुसार लधन तथा दीपन औपधियो का प्रयोग करना चाहिए ।
त्रिदोपज में-त्रिदोष का मिलित उपचार करे। सामान्यतया खजूर
१ सर्व मदात्ययं विद्यात् त्रिदोपमधिकं तु यम्। दोप मदात्यये पश्येत् तस्यादौ प्रतिकारयेत् ।। कफम्यानानुपूर्व्या च क्रिया कार्या मदात्यये। पित्तमारुपतर्यन्त प्रायेण हि मदात्यय ॥ मिथ्यातिहीनपीतेन यो व्याधिरुपजायते। समपोतेन तेनैव स मद्येनोपगाम्यति ॥ जीर्णाममद्यदोपाय मद्यमेव प्रदापयेत् । प्रकाशालाघवे जाते यद्यदस्मै प्रदापयेत् ॥ च० वि० २४ ॥ न चेन्मद्यक्रम मुक्त्वा मद्यमस्य प्रयोजयेत् । लड्नाद्य . क्फे क्षीणे जातदोवल्यलाघवे ॥ ओजस्तुल्यगुण क्षीरं विपरीत च मद्यत । पयना च हृते रोगे वले जाते निवर्तयेत् । धीरप्रयोग मद्यका क्रमेणाल्पात्पमाचरेत ।। च०६०