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भिपकर्म-सिद्धि
तथापि वैद्यक ग्रंथों में गूट तत्त्वों की आस मे
पदृच्छा,
बुद्रिवाद या विद्यु तर्क का बल नही चलता है तब तत्रकार स्वभाव, रिवर, काल, नियति अथवा परिणाम की दुहाई देता हुआ अग्रसर होना है। स्थूलवृद्धि छात्र की जिनामा तो इमसे नृप्त हो जाती है, परन्तु सूः मग्राही को वितृष्णा का शमन नही होता । वह क्या और दने ? वाले प्रश्नो की लगा देता है। व्यापार को भी प्राय झुजलाहट हो जाती है ।
स्वभावमीश्वर कालं यच्छा नियनिं तथा । परिणामञ्च मन्यन्ते प्रकृति प्रदर्शिनः ॥
उदाहरणार्थ कुछ एक सूत्रो का उरण नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है । सुश्रुताचार्य ने जारीरस्थान को प्रथम अध्याय में प्रकृति ने सृष्टि और उप में लय का वर्णन करते हुए स्वभाव को हेतु एक उद्घाटन किया है
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सन्निवेशः शरीराणां दन्नाना पतनं तथा । तलेप्यसभवो यच रोम्णामेतत् स्वभावतः | धातुपु श्रीयमाणेषु वर्षे द्वाविमौ सदा । स्वभावं प्रकृति कृत्वा नखके पाविति स्थितिः ॥ निद्राहेतुः तमः सत्त्वं बोधने हेतुरुच्यते । स्वभाव एव वा हेतुर्गरीयान परिकीर्त्यते || स्वभावाल्लवको मुद्दास्तथा लम्पकविज्जलाः ।
स्वभावाद् गुरवो मापा वाराहमहिपान्यः ॥ बुद्धचरित मे कवि अश्वघोष ने भी स्वभाव से प्रवृत्ति का वर्णन किया हैकः कंटकस्य प्रकरोति तैच्ण्यं विचित्रभाव मृगपक्षिणा वा । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामकारोऽस्य कुतः प्रयत्नः ॥
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स्वभाव के स्थान पर ईश्वर का भी व्यवहार पाया जाता है। जिस रहस्य की व्याख्या मभव नही रहती, ईश्वर के सिर मढ़ कर तत्रकार को मतोप करना पडता है | श्रुति का भी वचन है कि सम्पूर्ण जगत की जनयित्री प्रकृति का अविष्ठान कर ईव्वर ही मम्पूर्ण जगत की सृष्टि करता है
अस्मान् सायी सृजते विश्वमेतन् । सायां तु प्रकृति विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ॥ अस्यावयवभूतेषु व्याप्त सर्वमिदं जगत् । कुतः केशान् कुतः स्रावः कुतः अस्थीत्यारभत् ॥ अङ्गपर्वाणि मज्जानं को मासं कुत आरभन् । जाठरो भगवानग्निः ईश्वरोऽन्नस्य पाचकः ॥