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भिपक्कर्म-सिद्धि
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मण्ड पेया प्रभृति यवागू का काल समाप्त हो जाने पर अर्थात् प्रथम सप्ताह के अनन्तर लघुभोजन दा दिनो तक ज्वर की शान्ति के लिये देना चाहिये । रोगी को अग्नि बलवती हो और कफ की अधिकता हो तो यूप का उपयोग, वात की प्रवलता हो और रोगी दुर्बल हो तो मातरस का उपयोग करना चाहिये । इस प या मासरम को आवश्यकतानुसार अनारदाने के बीजो को डाल कर अम्ल किया जा सकता है । फिर दस दिनो के बाद दोपो के परिपक्त्र हो जाने पर, कफके मद हो जाने पर, ज्वर मे वात-पित्त की अधिकता रहने पर गोघृत या औपधिकृत धी का पिलाना अमृत के समान लाभप्रद होता है । परन्तु इसके विपरीत अवस्था मे अर्थात् दोपो मे कफाधिक्य होने पर, अलंबित रोगी मे तथा दस दिनो के पूर्व घृतपान का निपेध है । इस दशा मे मामरम या यूप के साथ लघु भोजन देना ही प्रशस्त रहता है ।
यदि ज्वरी मे दाह और तृष्णा को अधिकता, ज्वर निराम हो गया हो, ज्वर का समय भी दो सप्ताह से अधिक हो गया हो तो रोगी को दूध पिलाना चाहिये । यदि विबन्ध रहता हो तो गाय का गर्म कर ठंडा किया दूध और यदि पतले दस्त हो रहे हो तो बकरी का दूध देना चाहिये । निराम ज्वर मे दूधरूपी पथ्य की प्रशंसा करते हुये वाग्भट ने लिखा है कि अग्नि से जले वन को जैसे बरसात का पानी जीवन देता है उसी प्रकार लघन ते उत्तप्त ज्वर के रोगी के शरीर मे दूव जीवन देता ह् ओर उसके ज्वर को नष्ट कर देता है :
तद्वदुल्लङ्घनोत्तप्तं प्लुष्टं वनमिवाग्निना ।
दिव्याम्वु जीवयेत्तस्य ज्वरं चाशु नियच्छति ॥
यदि इन उपचारो के वावजूद भी ज्वर न शान्त हो रहा हो, ओर रोगी का वल-मास और अग्नि क्षीण न हुई हो तो विरेचन के द्वारा उपचार करना चाहिये ।
साथ ही यह भी ध्यान मे रखना चाहिये कि ज्वर से क्षीण रोगी में वमन करावे और न विरेचन | उसके मल के निर्हरण के लिये पर्याप्त मात्रा मे गाय का दूध पिलावे या निहवस्ति ( Enema ) से कोष्टगुद्धि करनी चाहिये । ज्वर काल मे विवध होने पर अधिकतर वस्ति के द्वारा मल का निर्हरण करना ही उत्तम होता है । वस्ति दो प्रकार की होती है - रूक्ष कोष्ठ शुद्धि के लिये तथा स्निग्ध पोषण तथा ज्वर के नागन के लिये । कई प्रकार की ज्वरध्न अनुवासन वस्तियो का पाठ लष्टाङ्ग हृदय मे पाया जाता है ।
मद्योत्थज्वर, रक्तपित्त आदि मे जहाँ पर पेया का दिनो तक तर्पण के लिये लाजसत्तू तथा फलरसो का प्रयोग
निषेध है - प्रथम छ. करना चाहिये ।