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चतुर्थ खण्ड : प्रथम अध्याय २०६ पिप्पली या शुण्ठी शृत करके देना चाहिये। इसके लिये दूध मे आधा पानी मिलाकर खौलाने के लिये आग पर रखे एक कपडे को पोटली मे एक-दो पोपल या १-२ मागे सोठ बांधकर छोड दे। दूध खौल जाने पर एव पानी के थोडा जल जाने पर उतार ले और ठडा करके समय-समय से दे ।
मिश्री या ग्लुकोज का जल-खौलाये हुए जल मे मिश्री या ग्लुकोज का पानी मिलाकर बीच बीच मे पीने के लिये दे इससे एक उत्तम पोपण होता है।
काल-इस प्रकार रोगी के बल और दोप का ध्यान रखते हुए छ दिन व्यतीत कर देना चाहिये । अर्थात् जिस दिन ज्वर हुआ उस दिन आरम्भ करके छः दिनो तक प्रतीक्षा करनी चाहिये । सातवे दिन लघु अन्न का मात्रा से सेवन करावे । पुन आठवें दिन से पाचन या शमन रिया के लिये काढा पिलावे । वास्तव में ज्वर में प्रथम छ. दिनो तक प्रारम्भ में एक-दो दिनो तक लघन पश्चात् मण्ड पेया आदि का प्रयोग करना चाहिये । और आमदोपो के कम हो जाने एवं ज्वर के हल्के होने की प्रतीक्षा करनी चाहिये । सामान्यतया इन उपक्रमो से छ दिनो में आम-दोपो का पर्याप्त पाचन हो गया रहता है। अस्तु सातवे दिन लघु अन्न देने का विधान है। पश्चात् सातवे या आठवें दिन से शेष दोषो के पाचन या शमन के लिये भेषज ( काष्ठौषधियो के क्षाय) का प्रयोग करना चाहिये। ___ चरक चिकित्सा स्थान तीसवें अध्याय मे ज्वरो मे छ दिनो को सख्या का माहात्म्य बतलाते हुए एक वचन पाया जाता है । जो ज्वर मे काल ( समय) की प्रतीक्षा के महत्त्व का दिग्दर्शक है। "ज्वर मे पेया छठे दिन तक, छठे दिन के पश्चात् कपाय, पश्चात् वारहवें दिन से क्षीर, पश्चात् अठारहवें दिन से घी तत्पश्चात् चौबीसवें दिन से विरेचन दोषो के बलाबल का विचार करते हुए देना चाहिये।
चरक सहिता मे चिकित्सा के तृतीय अध्याय मे ज्वर के सबन्ध मे लिखा है कि
१ एता क्रिया प्रयुञ्जीत षड्रात्र सप्तमेऽहनि । पिबेत् कपायसयोगाज्वरघ्नान् सावु साधितान् ॥ ( हारीत) इति पाड्रात्रिक प्रोक्तो नवज्वरहरो विधि । तत पर पाचनीय शमन वा ज्वरे हितम् ।। (खरनाद)। पाचन शमनीयं वा कपाय पाययेद् भिषक् । ज्वरित षडहेऽतीते लघ्वन्नप्रतिभोजितम् ॥ (च. चि ३)
२ ज्वरे पेयाकपायाश्च क्षीर सर्पिविरेचनम् । षडहे षडहे देय वीक्ष्य दोषवलावले ॥ (च चि. ३०)
१४ भि० सि०