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चतुर्थ खण्ड : छब्बीसवाँ अध्याय
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शीशम, अगुरु, देवदारु एवं सरल वृक्ष से निकले तैलो का मर्दन भी पथ्य है । " एरण्ड तेल का भी उपयोग उत्तम रहता है ।
अपथ्य आहार-विहार - दिन में सोना, अग्नि का तापना, ब्यायाम, कुश्ती आदि का लडना, धूप में रहना, स्त्रीप्रसंग, उडद, कुलत्थ, सेम, मटर और क्षार तथा लवण पदार्थों का सेवन । जलचर तथा आनूपदेश मे पैदा होने चाले प्राणियो के मास, परस्पर मे विरुद्ध अन्न, दही, ईख, मूली, मद्य, तिलपिण्याक, कांजी प्रभृति अम्ल पदार्थ, कटु, उष्ण, गुरु एवं अभिष्यदी पदार्थ, ताम्बूल, लवण तथा सत्तू का सेवन वातरक्त मे अपथ्य होता है | २ भेषज
१. हरीतकी - एक या दो हरीतकी को लेकर चूर्ण बना कर गुड मे मिलाकर सेवन करे और उसके पश्चात् गुडूची के क्वाथ का अनुपान करे तो जानुपर्यन्तस्फुटित हुआ वातरक्त शान्त होता है ।
२ गुडूची- गुडूची स्वरस, कल्क, चूर्ण या क्वाथ को अधिक काल तक सेवन करने से वातरक्त शान्त होता है । ३. एरण्ड तेल ४. आरग्वध-अमलताश 'के फल का गूदा, गिलोय एवं अडूसे का काढ़ा बनाकर उसमे एरण्ड तैल १ तोला मिलाकर सेवन करने से वातरक्त मे लाभ होता है । ५. अश्वत्थ ( पीपल ) की छाल का क्वाथ बना कर उसमे मधु मिलाकर पीने से त्रिदोषज भयङ्कर भी वातरक्त रोग नष्ट होता है 13 ६. त्रिवृत, विदारी एवं गोक्षुरु का सम प्रमाण मे बनाया कषाय पीने से वातरक्त नष्ट होता है । ७ शुद्ध शिलाजतु - मात्रा १ माशा प्रात. - सायं गुडूची से सेवन । ८. गोरखमुण्डी - गोरखमुण्डी का महीन चूर्ण ६ माशा, घी १ तोला, मधु १॥ तोला मिलाकर
१. आढक्यश्चर्णका मुद्गा मसूराः समकुष्ठका । यूषार्थे बहुसर्पिष्काः प्रशस्ता वातशोणिते । पुराणा यवगोधूमनीवारा. शालिषष्टिकाः । भोजनार्थे हिता गव्य माहिषाजपयो हितम् ॥
२. दिवास्वप्नाग्निसताप व्यायामं मैथुनन्तथा । कटूष्ण गुर्वभिष्यन्दिलवणाम्लानि वर्जयेत् ॥
३. हरीनकी प्राश्य समं गुडेन एकोऽथवा द्व े च ततो गुडूच्या. । क्वाथोऽनुपीतः शमयत्यवश्यं प्रभिन्नमाजानुजवातरक्तम् ॥ शम्पाकामृतवासानामेरण्डस्नेहसंयुतम् । पीत्वा क्वाथमसृग्वातं क्रमात्सवर्गिजं जयेत् ॥ गुडूच्या स्वरसं चूर्णं कल्कं च क्वाथमेव वा । प्रभूतकालमासेव्य मुच्यते वातशोणितम् ॥ बोधिवृक्षकपायं सु पाययेन्मधुना सह । वातरक्तं जयत्याशु त्रिदोषमपि दारुणम् ॥ ( भै. र )