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भिपकर्म-सिद्धि
है ।
इस प्रकार का निर्दोष लक्षण बनाना ही है। এप का लक्षण करने ने पूर्वरूप के लक्षणो से निवृत्ति 'उप'
जाती है, क्योकि पूर्वम्प व्याचि का वीचक होता है। निशन नम् उपशय के लक्षणों में पार्थक्य दर्शनार्थ 'एव' शब्द का परिभाषा में प्रयोग हे । क्योकि ये तीनो भावी एव वर्त्तमान दोनों प्रकार की व्याधि के नि होते है । व्याधि के ज्ञापन में व्यवहृत होने वाले चक्षुजाद्रियता रोग के विनिश्चिय के अन्य साधन उर श्रवण, अणुवीक्षण, तरिरण आदि अन्य साधन सामान्य ज्ञापक होते है--उनका निरसन करने के लिये '' का प्रयोग हुआ है । इन साधनो ने प्राप्त ज्ञान को '' नहीं वह नाते क्योकि वस्तु विशेष के ज्ञापन कराने वाले अगाधारण लक्षण या वस्तु को ही लिङ्ग कहते है । साधारण ज्ञान को नहीं । कुछ विद्वानों के मन में व्याधि जन्म को ही सम्प्राप्ति मानते है--इन नम्प्राप्ति लक्षण को भी निवृत्ति 'लिङ्ग' पद से ही हो जाती है । क्योकि सम्प्राप्ति व्याधि के ज्ञान में कारण मात्र ही होती है लिङ्ग नही । फलत रूप का निर्युष्ट लक्षण 'उत्पन्नव्याधिबोधकमेव लिङ्ग रूपम्' यही होगा ।
रूप तथा व्याधि में भेद एवं पर्याय कथन - यान्य में व्यवहार तथा लक्षण के लिये पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है । इसी अभिप्राय से रूप के पर्याय रूप मे लिङ्ग, आकृति, लक्षण, चिह्न, मस्थान कोर व्यजन का व्यवहार हुआ है । यद्यपि पद अनेकार्यवाची होते है परन्तु यहाँ पर एकार्य में व्यवहृत हुए है ।
कई विद्वानो का मत है कि चूंकि व्याधि का ज्ञान रूप एव लक्षणो के द्वारा ही होता है, रूप मे भिन्न व्याधि की सत्ता भी नही है -- क्योकि अरुचि, स्वेदावरोध एवं संताप आदि लक्षणो के समुदाय को ही शास्त्र मे जर कहा गया है । इसी प्रकार ज्वर, कास एव रक्तष्टीवन आदि ग्यारह लक्षणों के समुदाय को ही राजयक्ष्मा कहा गया है । अस्तु रूप और व्याधि मे कोई अन्तर नही है |
यह एक विवादास्पद विषय है । चरक मे लिखा है 'सुखसंज्ञकमारोग्य विकारो दुखमेव च ।' फिर इसके कई पर्याय दिये गये है जैसे -- ' तत्र व्याधिरामयो गद आतको यक्ष्मा, ज्वरो, विकारो रोग इत्यनर्थान्तरम्' प्रत्येक की व्युत्पत्ति वतलाते हुए श्री चक्रपाणि ने लिखा है -- आतङ्क से भय, विकार शब्द से पोडश विकारो का भी ग्रहण हो सकता है परन्तु प्रकृत मे व्याधि के ही बोधक है । व्याधि-- "विविध दुखमादवातीति व्याधि. ' विविध प्रकार दुःख