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चतुर्थ खण्ड : तैतीसवाँ अध्याय
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दूध, द्राक्षा, विदारीकंद, इक्षुरस, घृत, शीतल पेय (Cold drinks) प्रभृति स्वादुस्निग्ध एव शीतल उपचारो से ठोक करना चाहिये । श्लैष्मिक लक्षणो की प्रबलता मूत्रकृच्छ्र में दिखलाई पडे तो भोजन एवं ओपन के रूप मे नारो का उपयोग उष्ण एव तीक्ष्ण अन्नपान, स्वेदन, जौ का प्रयोग, वमन, निरूहण, मट्ठा, तिक्त औपधियो से सिद्ध तैल का अभ्यंग एव पान करे । त्रिदोषज लक्षण मिलें तो व्यामिश्र क्रियाओ को वरते । '
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भेषज - १. कूष्माण्ड रस - पैठे का स्वरस ४ तोला उसमे यवक्षार ६ माशे मिलाकर चार मात्रा में विभाजित करके दिन में कई बार पीना ।
२ आमलकी स्वरस या कषाय - आमलकी २ तोला, जल १६ तोला अग्नि पर चढाकर अवशिष्ट जल ४ तोला, उसमे पुराना गुड २ तोला मिलाकर सेवन करने से रक्तपित्त, रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर तथा मूत्र कृच्छ्र दूर होता है । थकावट दूर होती है और चित्त प्रसन्न होता है ।
३ एर्वारु बीज - खोरे या ककडी का बीज भी अच्छा मूत्रल और मूत्रकृच्छ्रशामक होता है । इसका स्वतंत्र अथवा अन्य औषधियो का योग करके सेवन उत्तम रहता है । जैसे ककडी का बीज ६ माशा, मधुयष्टी ३ माशा, दारुहरिद्रा चूर्ण ३ माशा । मिलाकर एक मात्रा, चावल के पानी और मधु के साथ सेवन ।
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४. यवक्षार - यवक्षार १ माशा और खांड या देशी चीनी के शर्बत का सेवन । ५. कटकारी स्वरस २ तोला, मधु ६ माशा का सेवन । ६. सूर्यावर्त ( सूरजमुखी) अथवा सुवर्चला ( हुरहुर ) के बीजो को पत्थर पर पीस कर ताम्र घट मे रखे हुए वासी जल के साथ सेवन । ७ शुद्ध गंधक - शुद्ध गंधक ४ रत्ती, यवक्षार १ माशा, चोनी ६ माशे तक मे मिला कर सेवन करने से पूयमेहज मूत्रकृच्छ्र मे लाभ होता है । ८ नारिकेल पुष्प -- नारियल के फल के भीतर की पुष्पाकृतिरचना को निकाल कर चावल के धोवन के साथ पीस कर पीने से रक्तस्राव के साथ होने वाले मूत्रकृच्छ मे लाभ होता है ।
९ गोक्षुर - गोक्षुर वीज का कषाय यवक्षार मिलाकर पीना सरक्त मूत्रकृच्छ्र में लाभ करता है। १० पंच-तृण कषाय - कुश, कास, शर, दर्भ और ईख के
१ नस्याञ्जन स्नेहनिरूहवस्ति स्वेदोपनाहोत्तरवस्तिसेकान् । स्थिरादिभिर्वातहरैश्च सिद्धा दद्याद्रसाश्चानिलमूत्रकृच्छू || सेकावगाहा शिशिराः प्रदेहा ग्रैमी विधिर्वस्तिपयोविकारा । द्राक्षाविदारीक्षुरसंघृतैश्च कृच्छ्रेषु पित्तप्रभवेषु कार्या ॥ क्षारोष्णतीक्ष्णौपधमन्नपान स्वेदो यवान्न वमन निरूहा | तक्र सतिक्तोषधसिद्धतैलमभ्यगपान कफमूत्रकृच्छ्रे ॥