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चतुर्थ खण्ड: बाइसवॉ अध्याय
अनुभव (Feeling), विवेचन (Thinking), तथा क्रिया (Action), इनसे मानसिक क्रियाये सम्पन्न होती है । मन की ही अवस्था विशेष का नाम बहकार और बुद्धि है । इन्द्रियो के द्वारा किया गया प्रत्यक्ष मन के पास पहुँचता है, मन उसके हेयोपादेय (भले बुरे) का विचार करके अहकार को दे देता है। अहकार भी यह मेरा है ममझकर उसका ग्रहण या त्याग करने के लिए बुद्धि को गोप देता है। इस प्रकार वस्तु के ज्ञान मे इन्द्रियाँ अप्रधान तथा मन आदि तीनों संत करण प्रधान माने गये है।
सान्तःकरणा बुद्धिः सर्व विषयमवगाहते यस्मात् ।
तस्मात् त्रिविध करणं द्वारि द्वाराणि शेषाणि ।। ( सा. का ) ये सभी क्रियायें मन के सत्त्व गुण की प्रकृतावस्था पर ही निर्भर है। सत्त्व गुण को कमी एवं रज और तम की अधिकता से उपर्युक्त विविध मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न होती है । मानसिक व्याधियो मे उन्माद का महत्त्व सर्वाधिक है। अत यहां पर उसी का वर्णन किया जा रहा है।
वातादि दोप विकृत होकर जब मनोवह स्रोत (वातनाडी सस्थान ) मे पहचते है तो उसके सत्त्व गुण का ह्रास एवं रज तथा तमो गुण की वृद्धि कर के मनोविभ्रम या उन्माद रोग को उत्पन्न करते हैं। उन्माद किस को और क्यो होता है। इसका विवेचन यथास्थान आगे किया जायगा। सम्प्रति उन्माद की सक्षिप्त परिभाषा के बारे मे विचार किया जा रहा है।
निष्प्रयोजन तथा उच्छृ खल प्रवृत्ति का ही दूसरा नाम उन्माद है। प्राकृतावस्था मे मनुष्य प्रत्येक कार्य किसी प्रयोजन मे ही करता है बिना प्रयोजन के अल्प बुद्धि को भी प्रवृत्ति नही होती 'न प्रयोजनमनुदिश्य मन्दोऽपि प्रवर्तते।' प्राचीनो ने प्राणैषणा (जीवित रहने की इच्छा Instinct of Self Preservation), धनैषणा या कामैपणा (धन या कामना की पूर्ति की इच्छा Sexual), धर्मपणा या परलोकैषणा ( समाज और धर्म की इच्छा Herd instinct ), इन तीनो को ही प्रवृत्ति का कारण या प्रयोजन माना है"सुत वित नारि ईपना तीनी। केहि के मति नहिं कीन मलीनी"। ये सभी एपणाये तथा प्रकृति एव तदनुकूल प्रवृत्तियाँ प्राय माता-पिता के गुणो के अनुसार सतान में आती है । वृत्त तथा सदाचार आदि गुण जातोत्तर काल मे शिक्षण के अनुसार
आते हैं। ___इस प्रकार उपर्युक्त एपणावो से रहित होकर कार्य करने की अव्यवस्थित प्रवृत्ति को ही उन्माद कहते हैं । व्यर्थ हो तिनके तोड़ना, भूमि का कुरेदना प्रभृति
२८ भि०सि०