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तृतीय खण्ड : प्रथम अध्याय
१६३ ( यत्रोपयंत्र तथा शस्त्रानुशस्त्रो के द्वारा), जत्रु के नीचे के शरीरावयवो में होने वाले रोगो का उपचार करना ( शल्यतत्र ), २ जत्रु के ऊपर के शरीर के अवयवो की शलाका आदि के द्वारा चिकित्सा करना ( शालाक्यतत्र ), ३ देव, असुर, गधर्व, राक्षस, पित, पिशाच एवं नागग्रह आदि से उपसृष्ट व्यक्कियो मे अर्थात् आधि या मानसिक रोगो से पोडित होने पर शान्तिकर्म-वलि-मंगल-होमजप प्रभृति आधिदैविक उपचारो से रोगापनयन की क्रिया ( भूत विद्या ), ४ गर्भिणी परिचर्या, स्त्री रोग तथा बाल रोगो के उपचार ( कौमार भृत्य ) ५ सर्प-कीट-लूता एव मूपक प्रभृति जगम तथा विविध प्रकार के वानस्पतिक एव पार्थिव विपोपविप प्रभृति स्थावर प्रभावो से पीडित व्यक्तियो का उपचार ( अगदतत्र ), ६ स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को स्थिर रखना या वय स्थापन, मेधा एव वल का वढाना, रोग, वार्धक्य और मृत्यु पर विजय पाने का उपक्रम ( रसायन तत्र), ७ अल्प शुक्र वाले पुरुषो मे वीर्य का वढाना, दूषित शुक्र वाले व्यक्तियो के शुक्र का सशोधन करना, क्षीण शुक्र वाले शरीरो को स्त्रीसग के लिये सक्षम करने का कर्म ( वाजीकरण ) तथा ८ सम्पूर्ण शरीर को प्रभावित करने वाले रोगो की अर्थात् ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह तथा अतिसार आदि रोगो के उपचारार्य ( कायचिकित्सा ) है ।
प्रस्तुत विपय का सम्बन्ध प्रधानतः इसी अतिम अग कायचिकित्सा से ही है । भिपक् कर्म-सिद्धि नामक इस पुस्तक की रचना भी एतदर्थ ही है। परन्तु व्यवहार मे व्यपदेश से अन्य अंगो का जैसे कायचिकित्सा के अतर्गत रसायन एव वाजी-करण तथा भूतविद्या नामक अतिरिक्त अगो या तत्रो का भी समावेश इसमें हो जाता है।
अथास्य प्रत्यगलक्षणानि समासत:१. रसायनतन्त्रं नाम वय स्थापनमायुर्मेधावलकरंरोगापहरणशमार्थं च । २ वाजीकरणतन्त्रं नामाल्पदुष्टक्षीणशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपचय
जनननिमित्तम् । ३ कायचिकित्सा नाम सर्वाङ्गसंश्रितानां व्याधीना ज्वररक्तपित्त
शोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम् । ४ भूतविद्या नाम देवासुरगन्धर्वयक्षरक्ष पितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्ट
चेतसा शान्तिकमालहरणादिग्रहोपशमनार्थम् । (सु सू १ )
कायचिकित्सा की शाब्दिक व्युत्पत्ति-काय का अर्थ है सम्पूर्ण शरीरइसकी चिकित्सा करना कायचिकित्सा है । काय की अन्य व्युत्पत्ति 'कायतीति काय' भी है । कायति का अर्थ धुक् धुक शब्द करना है। कान को अगुलि से वद करने