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चतुर्थं खण्ड : अठारहवा अध्याय ४०७ अन्न-पान तथा जीवनीय गणको औपधियो से सिद्ध क्षीर या घृत का उपयोग, गुड और दघि का मेवन । गुडूची स्वरस का सेवन उत्तम रहता है।
पैत्तिक मे-पक्व गूलर का रस मिश्री के साथ, गूलर का काढा या शारिवादि गण की औपधियां ( अनन्तमूल, खस, गाम्भारी के फल, महुवे का फूल, दोनो चदन, मुलैठी और फालसा) तथा मधुष्टि, अमलताश और द्राक्षा का उपयोग उत्तम रहता है । लाजसत्तूका घोल भी मिश्री के साथ अनुकूल पडता है।
श्लैष्मिक मे-कफज छदि के समान उपचार करे। नीम की पत्ती का काढा पिलाकर वमन करावे । दाडिम तथा अन्य अम्ल एवं कषाय रस के फलो के रन का सेवन । हल्दी का चूर्ण मधु और मिश्री मिला कर जल से दे। विल्बमूल, अरहर का मूल, धाय का फूल और पचकोल के कपाय का सेवन उत्तम रहता है।
क्षतोत्थित में-रक्तस्राव के लिए स्तम्भन चिकित्सा करे और मृग मादि का ताजा रक्त का पान रोगो को करावे ।
क्षयोत्थित मे-क्षयन उपचार । दूध-पानी बराबर मिलाकर पिलाना, मधु युक्त जल का पिलाना अथवा मास के रस का सेवन कराना लाभप्रद होता है।
भक्तोद्भव-गरिष्ठ अन्न के सेवन करने से उत्पन्न तृष्णा मे वमन कराना चाहिए। क्षयोद्भव तृष्णा को छोडकर सभी तृष्णा रोग मे वमन करा देना लाभप्रद होता है। सामान्य भेपज
नस्य-मुनक्के ( अगूर) का रस, ईख का रस, दूध और मिश्री, मिश्री का पानी मे बना शर्बत, मुलेठी का काढा और मधु, महुए के फूल का रस मधु मिलाकर, नील कमल का रस मधु मिलाकर। नाक से नस्य रूप मे देने से दारुण तृष्णा भो शान्त होती है। इन रसो को पृथक् पृथक् उपयोग मे लाना चाहिए । ऊँटनी का दूध अथवा नारी-क्षीर का नस्य भी तृषा मे शामक प्रभाव दिखलाता है ।
गण्डूप-दूध, ईख का रस, महुवे का आसव (माध्वीक ), शहद, सीधु ( मधुर द्रव्यो का आसव ), गुड का शर्वत, अम्लवंत का काढा तथा काजी इनका यथालाभ एकैक या मिलाकर गण्डूप ( मुख मे कुल्ला) भरने से तृष्णा शान्त होती है । यह योग विशेपत तालु-शोप ( तालु के सूखने ) मे लाभप्रद होता है।
कवल-विजौरे नीबू का केशर, अनारदाने का चूर्ण और मधु मिलाकर चटनी जेसे बना कर मुख मे धारण करने से तत्काल तृष्णा शान्त होती है।
लेप-अनार, वेर, लोध, कपित्थ, वीजपूर ( विजौरा नीवू ), लाल चदन, चन्दन, खस, सुगधबाला, कमल के फूल। इन द्रव्यो को यथालाभ काजी मे पीस कर सिर पर लेप करने से तृष्णा का शमन होता है।