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चतुर्थ खण्ड : बाइसवॉ अध्याय वालमहसंख्या-सुव्रत तथा अप्टाइहृदय मे कई वर्गों में इन लक्षणो के विभजन तथा विभिन्न ग्रहो के अनुसार लक्षण तथा उपचार का उल्लेख मिलता है। उदाहरणार्थ सुध्रुत ने कुल ग्रहो की सत्या ९ वतलाई है जो माकाशीय नवग्रहो की मरमा के माघ माम्य रसता है । अष्टाङ्गहृदय मे सत्या बारह वतलाई गई है। रावण नामक किसी आचार्य ने बाल ग्रहो का वर्णन पूतना के नाम से किया है नौर कुल सल्या सोलह बतलाई है। यहां पर अष्टाङ्गहृदय के अनुसार १२ वालग्रही मा नाम दिया जा रहा है।
अपने पुत्र कात्तिकोय की रक्षा के लिए शूलपाणि भगवान् शकर ने ग्रहो की उत्पत्ति की है । ये बारह प्रकार के होते है। इनमे छ पुलिङ्गी और छ स्त्रीलिली होते है। १ स्कंद २ विशाख ३. मेष ४ श्वग्रह ५. प्रपितृ ६. शकुनि मना छ: पुलिङ्गवाचक तथा ७ पूतना, ८ शीतपूतना ९ दृष्टिपूतना १० मसमण्डलिका ११ रेवती, १२ शुष्करेवती ये छ स्त्रीलिङ्ग वाचक होते है।
रोगोत्पत्ति में ग्रहों की कारणता-आचार्य सुश्रुत ने लिखा है कि "माप्त या शाम्नबननो के अनुसार अर्थात् जो शास्त्र मे लिखा है उस को देख कर तदनरूप रोगो की उत्पत्ति में इन ग्रहो की कारणता, लक्षण और चिकित्सा का उत्लेव किया जावेगा।"
माता या घात्री के अपथ्य या अपचारो से जसे, मास-सुरादि का सेवन, मत्र-परीपादि को सफाई न रखना, मगल कर्म का अभाव तथा अपवित्रता से ग्रह कपित हो जाते है तथा अपनी पूजा करने के निमित्त या हिंसा के लिए शिशु पर आक्रमण करते है । हिंसाकाक्षा या अर्चनाकाक्षा इन दो कारणो से ही वालक को ग्रह कष्ट देते है "हिंसारत्यर्चनाकाक्षा ग्रहग्रहणकारणम् ।" वस्तुत गह बालक के रक्षक रूप मे रहते है क्योकि इसी निमित्त इनकी सृष्टि भगवान् शंकरने की थी परन्तु अपवित्रता या अपूजन से वे स्वयं बालक के भक्षक हो जाते हैं।
सामान्य उपचार-सामान्यतया सभी ग्रहो के उपचार में निम्नलिखित कर्मों या उपक्रमो की आवश्यता होती है- १ परिपेक (Sponging) २ अभ्यंग ( Massage)-महावला तैल का अभ्यंग ३ घृत प्रयोग-अष्टमगल घृत (* र ) ४. क्षीर प्रयोग-जैसे विडङ्गपाक क्षीर ५ धूपन-सर्पनिमोक, रोम, केश, चर्म आदि का धूपन ६. प्रदेह-सर्वगधद्रव्य युक्त ७ औषधि धारणगडची-पुत्रजीव-शारिवा-आदि का धारण ८ वलिनिहरण-बहिर्बलि के लिये रगीन वस्त्र, भक्ष्य, द्रव्य, नैवेद्य देवता के नाम से निकाल कर बालक को स्पर्श कराके