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तृतीय खण्ड द्वितीय अध्याय
सुखसाध्यः सुखोपायः कालेनाल्पेन 'साध्यते । सुखसाध्यं मतं साध्यं कृच्छ्रसाध्यमथापि च ॥ द्विविधं चाप्यसाध्यं स्याद्याप्य यच्चानुपक्रमम् । साध्याना त्रिविधाश्चाल्पमध्यमोत्कृष्टतां प्रति । विकल्पो न त्वसाध्यानां नियताना विकल्पना ॥
আম
नव
(च. सू १० )
साध्योऽसान्य इति व्याधिद्विधा तौ तु पुनर्द्विधा । सुसाध्य कृच्छ्रसाध्यञ्च याप्यो यश्चानुपक्रम ॥ सर्वोषधक्षमे देहे यूनः पुंसो जितात्मन । अमर्मगोऽल्पहेत्वग्र रूपरूपोऽनुपद्रवः अतुल्यदूष्यदेशत्तु प्रकृतिः ग्रहेष्वनुगुणेष्वेकदोषमार्गो
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पादसम्पदि ।
सुखः ॥
( अ हृ सू )
हेतव पूर्वरूपाणि रूपाण्य ल्पानि यस्य च । न च तुल्यगुणो दूष्यो न दोषः प्रकृतिर्भवेत् ॥ न च कालगुणस्तुल्यो न देशो दुरुपक्रमः । गतिरेका नवत्वञ्च रोगस्योपद्रवो न च ॥ दोपश्चैकः समुत्पत्तौ देहः सर्वौषधक्षमः । चतुष्पादोपपत्तिश्च सुखसाध्यस्य
लक्षणम् ॥
( चर. सू १० ) और देर मे अच्छा
कृच्छ्रसाध्य - जो रोग कठिनाई से बहुत उपायो से होता है, वह कृच्छ्रसाध्य या कष्टसाध्य कहा जाता है । जिसमे निमित्त पूर्वरूप और रूप मध्यम वल के हो, काल-प्रकृति- दृष्य मे से किसी एक की समानता दोप के साथ हो, गर्भिणी-वृद्ध या बालक रोगी हो, अधिक उपद्रवो से युक्त रोग न हो, शस्त्र, क्षार या अग्नि कर्म के द्वारा साध्य रोग हो, पुराना रोग हो, देश की कृच्छ्रता हो ( अर्थात् देश एव रोग की अनुकूलता न हो ), रोग दो मार्गानुसारी हो, सभी चतुष्पादो की सम्पन्नता न हो, रोग बहुत पुराना न हो तथा रोग दो दोषो से उत्पन्न हुआ हो ऐसे रोग कृच्छ्रसाध्य होते हैं ।
निमित्त पूर्वरूपाणां
रूपाणा मध्यमे' बले ।
कालप्रकृतिदूष्याणा सामान्येऽन्यतमस्य च ॥
गर्भिणीवृद्धबालाना शस्त्रक्षाराग्निकृत्यानामनव
नात्युपद्रवपीडितम् । कृच्छ्रदेशजम् ॥