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भिपक्कर्म-सिद्धि
रोगं
नातिपूर्णचतुष्पथम् ।
विद्यादेकपथं द्विपथं नातिकालं वा कृच्छ्रसाध्यं द्विदोषजम् । कृच्चैरुपायैः कृच्छ्रस्तु महद्भिश्च चिरेण च ॥
आहार-विहार वह याप्य है ।
शस्त्रादि साधने कृच्छ सङ्करे च ततो गदः । ( वा सू १ ) याप्यरोग - सुखसाध्य लक्षणो के विपरीत होने पर, पथ्य के अभ्यास से, आयु के शेष रहने पर जो रोग साध्य होता है यापनीय उस व्याधि को कहते है जिस मे रोगी उपचार के आश्रित होकर जीवित रहे और उपचार के बंद होने के साथ ही रोगी मर जावे । जिस प्रकार कोई मकान की छत गिर रही हो तो उसमे ठोक प्रकार से विष्कंभ (स्तंभ ) लगाकर स्थिर कर लिया जाता है, परन्तु खम्भे के हटाते ही छत गिर जाती है, मकान नष्ट हो जाता है । यही स्थिति यापन कर्म तथा याप्य व्याधियो की रहती है ।
( चमू १० )
शेषत्वादायुपो याप्यः पथ्याभ्यासाद् विपर्यये ।
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शेपत्वादायुपो याप्यमसाव्यं लब्धाल्पसुखमल्पेन हेतुनाशु
यापनीयं विजानीयात् क्रिया धारयते तु यम् । क्रियायां तु निवृत्तायां सद्य एव विनश्यति ॥ प्राप्तक्रिया धारयति याप्यव्याधितमातुरम् | प्रपतिष्यदिवागारं विष्कम्भः साधुयोजित ॥
( वा सू १ )
गंभीरं बहुधातुस्थं मर्मसन्धिसमाश्रितम् । नित्यानुशायिनं रोगं दीर्घकालमवस्थितम् ॥
( सु सू. २२ )
पथ्यसेवया । प्रवत्तेकम् ॥
( च सू. १० )
प्राय इस प्रकार के रोग गहराई में, बहुत से धातुवो मे, मर्माङ्गो में स्थित दीर्घकालीन एव नित्य वढने वाले होते है ।
अनुपक्रम्य, अचिकित्स्य या असाव्य-जो रोग सुखसाव्य व्याधि के लक्षणो से पूर्ण तथा विपरीत लक्षणो का हो, जिसमे विपयोत्कठा, चित्तनाश, बेचैनी, मृत्युसूचक चिह्न स्पष्ट हो, चक्षु आदि इन्द्रिया जिसमें नष्ट हो जायें वह रोग असाध्य होता है ।