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चतुर्थ खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय ६३६ जलाकर उसकी राख को गोमूत्र मे भिगोकर लगाना। ३. सफेद जयन्ती के मूल की छाल को गोमूत्र में पीसकर लगाना। ४. वाकुची वीज और हरताल' का महीन चूर्ण बनाकर गोमूत्र से पीसकर लेप करना । ५ गजादि चर्म मसीहाधी, चीता और शेर के चमडे को जलाकर काजल बनाकर लेप करना । ६ पूतिकीट को सरसो के तेल मे पीसकर लगाना। ७ श्वित्रहर लेप-अर्क मूलत्वक, हल्दी, आमा हल्दी, वाकुची, हरताल समभाग चूर्ण बनाकर गोमूत्र केनि साथ श्वित्र पर लेप करना। ८ काकनासा की पर्ती के कल्क या स्वरस का Zall लेप । ९ गजलिण्ड योग-हाथो के मल को अच्छी तरह सूखने पर जलाकर | उसकी राख को जल में घोलकर सात बार निथारकर प्राप्त क्षार जल मे जल से दशमाश वाकची बीज का चूर्ण डालकर अग्नि पर पकावे । चिक्कन होने पर गुटिका बना ले। इस गुटिका को पानी मे घिसकर श्वित्र पर लगाने पर श्वित्र नष्ट होता है । और त्वचा सवर्ण हो जाती है । १०. बाकुची तैल-शद्ध वाकची के तेल का श्वित्र पर लगाना भी उत्तम लाभ करता है। ११, सोमराजी, पचानन या आरग्ववादि तैल का लेप भी उत्तम रहता है। ।
ओप्ट-श्वित्रहरलेप--ओष्ठश्वित्र कप्टसाध्य होता है। इसके लिये गधक, चित्रक, कासीस, हरताल, बहेरा और आंवले को जल मे पीसकर ओष्ठ के श्वित्र पर लगाने से लाभ होता है।
शिवत्र मे लेप प्राय तीक्ष्ण होते हैं । फलतः इनके लगाने से कई बार त्वचा पर छाले पड़ जाते हैं। छाले हो जाये तो औषध प्रयोग कुछ दिनो के लिये बन्द कर देना चाहिये। छालो को सूई से विद्ध करके जल को स्रवित करके पुनः लेप का उपयोग करना चाहिये।
पंचानन तैल-अंकोठ ( ढेरा ), कडवी तरोई, एरण्ड, तुलसी, वाकुची एवं चक्रमर्द के वीज, पिप्पली, मन.शिला, कासीस, हरड, कूठ, वायविडङ्ग को दो-दो तोले लेकर कल्क करे, सरसो का तेल, गोमूत्र, गोदधि, गोदुग्ध, वकरी का मूत्र प्रत्येक १ सेर और जल ४ सेर मिलाकर कडाही मे अग्नि पर चढाकर पाक करे । इस सिद्ध तैल का श्वित्र मे लेप करे। प्रथम श्वित्र स्थान को ताम्र के पैसे से रगड ले पश्चात् तैल को लगावे ।
आरग्वधाद्य तेल-अमलताश तथा धव की छाल, कूठ, हरताल, मन.शिला, हरिद्रा, दारुदरिद्रा प्रत्येक तीन-तीन तोले भर कल्क वनावे फिर १ सेर तेल और ४ सेर पानी मिलाकर तेल का पाक कर ले । उपयोग पूर्वोक्त तैलवत् ।