________________
तृतीय खण्ड : द्वितीय अध्याय
चहुकल्पं बहुगुणं सम्पन्नं योग्यमौषधम् । प्रशस्तदेशसम्भूतं प्रशस्तेऽहनि चोद्धृतम् ।
युक्तमात्रं महावीर्यं गन्धवर्णरसान्वितम् ॥ कीटाद्यभक्षितं शुद्धं मृतं लौहादिकन्तथा । '
समीक्ष्य काले दत्तञ्च भेपनं परमं स्मृतम् ॥ ( सु ) बहुता तत्र योग्यत्वमनेकविध कल्पना ।
१७६
सम्पच्चेति चतुष्कोऽयं द्रव्याणां गुण उच्यते ॥ प्रशस्त देश सम्भूतं प्रशस्तेऽहनि चोद्धृतम् ।
युक्तमात्रं मनस्कान्तं गन्धवर्णरसान्वितम् ॥ दोपन्नमग्लानिकरमविकारि विपर्यये ।
समीक्ष्य दत्त कालञ्च भेपजं पाद उच्यते ॥ उपस्थाता परिचारक -- इन मे चार गुण अवश्य रहे । जैसे रोगी मे अनुराग रखने वाला, स्वच्छता से रहने वाला, काम मे भी होशियार एवं बुद्धिमान् परिचारक को होना चाहिये ।
अनुरक्त शुचिर्दक्ष बुद्धिमान् परिचारक । उपचारजता दाक्ष्य मनुरागञ्च भर्त्तरि ।
शोचं चेति चतुष्कोऽयं गुण परिचरे जने ॥ ( च सू ६) स्निग्धोऽजुगु सुर्बलवान् युक्तो व्याधितरक्षणे ।
वैद्यवाक्यकृदश्रान्त पाद परिचर स्मृत । (सु )
रोगीनी (पैने वाला ), चिकित्सक की आज्ञा मान कर उसके अनुसार चलने वाला, अपने कष्ट को स्पष्टतया बतलाने वाला तथा हिम्मती या धैर्यवान् होना रोगी का श्रेष्ठ गुण है ।
आयुष्मान् सत्त्ववान् साध्यो द्रव्यवानात्मवानपि ।
आस्तिको वैद्यवाक्यस्थो व्याधित पाद उच्यते ॥ (सु) स्मृतिर्निर्देशकारित्वमभीरुत्वमथापि च ।
ज्ञापकत्वञ्च रोगाणामातुरस्य गुणाः स्मृताः ॥ ( च ) यो रोगी भिपग्वश्यो ज्ञापकः सत्त्ववानपि ॥
त्याज्य रोगी - निम्न लिखित लोगो की चिकित्मा नही करनी चाहिये । जिस पर राजा या शासन को रोष हो अथवा राजद्रोही या शासनतंत्र के विपरीत आवाज उठाने वाले या कार्य करने वाले व्यक्ति को, अपने शरीर से ही जिसको द्वेष हो ऐसे आदमी की, सहायक सामग्री से हीन रोगी की, घबडाने वाले स्वभाव के मनुष्यो को, आज्ञा न मानने वाले व्याक्ति को, कृतघ्न, मुमूर्षु, क्रोधी, शोकाकुल,