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चतुर्थ खण्ड : चौदहवाँ अध्याय
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प्राणायाम कराना, दग्ध मिट्टी पर जल डालकर सुघाना, कूचो से जल की धारा छोडना, नाभि के ऊपर चोट पहुँचाना, हल्दी को दिया पर जला कर उससे पैरो पर या नाभि के दो अंगुल नीचे या ऊपर जलाना।
परन्तु जहाँ पर हिचकी रोग रूप में पैदा हो जाती है-कुछ स्थायी उपचार भी आवश्यकता होती है । मस्तु, हिक्का रोग में तथा श्वास रोग में सर्वप्रथम हिनका रोग में रोगी के उदर पर तथा श्वास रोग मे रोगी के वक्ष-स्थल पर किमी तेल का मर्दन कराके स्वेदन करना चाहिए । तैल मे सैधव या कपूर भी मिलाया जा सकता है। स्वेदन के अनन्तर स्निग्ध तथा लवणयुक्त प्रयोगो से वायु का अनुलोमन करना चाहिए । यदि रोग वलवान् हो तो वमन तथा विरेचन मे उसका मदु नशोधन करना चाहिए अन्यथा केवल गमन चिकित्सा करनी चाहिए।'
कुछ सामान्य औषधियां जो श्वास तथा हिक्का दोनो मे व्यवहृत होती है। दशमूल की औषधिया, रास्ना, कचुर, पिप्पली, द्राक्षा, शु ठी, पुष्कर मूल, कर्कटशृंगी, आमलकी, खजूर, भारगी, गुडूची, हिंगु, सीवर्गल, जीरा, हरीतकी, यव, घासमद, गाभाजन, सूसी मूली का यूप या वैगन का यूप, दधि, त्रिकटु और चियक घी मिला कर।
हिकामे-भेषज-ओपधियाँ कारणानुसार दो प्रकार की होती है १. जिनको प्रभाव साक्षात् मस्तिष्क पर होकर हिचकी वद हो। २ दूसरी ऐसी औपवियाँ जिनका प्रभाव पचन संस्थान पर होकर धीरे-धीरे वायु का अनुलोमन होकर हिक्का का शमन हो। प्रथम वर्ग में कई प्रकार के नस्य (नाक के रास्ते प्रयुक्त होने वाले योग ) तथा धूम आदि है । जैसे-१ मातस्तन्य ( नारीक्षीर) का नस्य हिचकी मे चामत्कारिक लाभ दिखलाता है । २ नारीक्षीर, सफेद चंदन का घृष्ट और सैन्धव नमक मिलाकर पानी में घोलकर गर्म करके नाक मे टप काना हिक्का को सद्य वद करता है। ३ सेंधानमक को पानी में घोल कर
१. शीताम्बुसेक सहसा त्रासो विस्मापन भयम् । क्रोधो हर्प, प्रियोगप्राणायामनिपेवणम् ।। दग्धसिक्तमृदाघ्राणं कूचंधाराजलार्पणम् । नाभ्यूर्ध्वपातन दाहो दीपदग्धहरिद्रया पादयो याङ्गलान्नाभेरूवं चेष्टानि हिक्किनाम् ॥ (भ. र)
२. हिक्काश्वासातुरे पूर्व तैलाक्ते स्वेद इष्यते । स्निग्धैलवणयोगैश्च मृदु वातानुलोमनम् । ऊधि. शोधन शक्ते दुर्वले शमन मतम् ।। ( भै र )
३ नारीपय पिष्टसुशुक्लचन्दन कृत सुखोष्णञ्च ससैन्धव च । पिष्ट तथा सैन्धवमम्वुना वा निहन्ति हिक्का खलु नावनेन । (यो र )
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