________________
चतुर्थखण्ड : द्वितीय अध्याय
२२३
निष्ठीवन-मोठ, मरिच, पिप्पली और सैधवलवण बराबर मात्रा मे लेकर महीन चूर्ण करके अदरक के रस मे मिलाकर मुख मे कण्ठ पर्यन्त भरकर रखे । जो कफ निकले उमको वार वार थूक कर निकाल दिया करे । इस प्रकार दिन मे कई बार करे । इस प्रयोग से गले में, पारवे मे और सिर मे कफ भरा हो और न निकलता हो, कास- श्वास हो, गला बैठा हो, नेत्र मे भारीपन हो, उल्लेश और स्तब्धता हो तो लाभ होता है ।
अंजन - तद्रा एव मूर्च्छा की स्थिति मे उसके निवारणार्थ शिरीषाद्यञ्जनशिरीपवीज, पिप्पली, काली मिर्च, मेंधा नमक, लहसुन ( छिल्का रहित ), शुद्ध मन गिला और वच इनको बराबर मात्रा मे लेकर गो-मूत्र मे पीस कर बत्ती बनावे | उस बत्ती को पानी मे पीस कर घिसकर अजन नेत्र मे लगावे । अजन भैरव रस ( रा सग्रह ) का अजन भी लाभप्रद होता है ।
अवलेह -- अष्टाङ्गावलेहिका - कट्फल, पुष्करमूल, सोठ, मरिच, पीपरि, काकडासीगी, जवासा, कालाजोरा सम भाग मे लेकर उसमे चतुर्गुण मधु मिलाकर रख ले | इस को थोडा-थोडा कर के बीच-बीच मे चाटने से कास, श्वास, कण्ठावरोध, गले की घुरघुराहट ठीक होता है ।
शिरोऽभ्यंग - १ पुराण घृत ( दस वर्ष का पुराना घी ) का मस्तक और मिर पर लगाना । इस मे थोडा कपूर मिलाकर लगाना और अधिक लाभप्रद होता है । इस प्रयोग से ज्वर का वेग कुछ कम होता है शिरोगौरव, प्रलापादि भी शान्त होता है ।
२ पुराण घृत सिर के ऊपर लगा करके काले उर्द ( माष ) के क्ल्क की मोटी टिकिया बना कर थोडा सेंक कर रख कर ऊपर से एरण्डपत्र रख कर बाँध देना चाहिये ।
३ हिमाशु तैल का सिर के ऊपर तथा हाथ-पैर के तलवे मे मालिश करनी
चाहिये ।
४ अडे ( मुर्गी ) की जरदी का लेप सिर के ऊपर करना प्रलाप को कम करता है |
५ काली मुर्गी के अण्डे के पान, नस्य तथा अजन से अत्यन्त प्रवृद्ध कृच्छ्र सन्निपातमे अच्छा लाभ होता है । १
सन्निपात मे बृहण तथा शीतल जल का निषेध - सन्निपात ज्वर मे काँपते और प्रलाप करते हुए रोगी को घृत-क्षीर मासादि प्रभृति द्रव्य नही देना
१ शितिकुक्कु टिकाजाण्डजजलपानान्नस्यादप्यञ्जनाच्च ।