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________________ चतुर्थ खण्ड : छत्तीसवाँ अध्याय ५६१ दूध एव पिप्पली की मात्रा पूरी हो जाती है। फिर ग्यारहवे दिन से पिप्पली की नंख्या प्रत्यह दस कम करता चले साथ ही दूध की मात्रा भी १ पाव प्रतिदिन कम करता चले। इस प्रकार उन्नीसवे बीसवें दिन रोगो पिप्पली तथा दूध की प्रारम्भिक मात्रा पर आ जाता है एव कल्प पूरा हो जाता है। पूरे कल्प से एक सहत पिप्पली का उपयोग हो जाता है । ___ पल्प के पूरा हो जाने पर, पिप्पली और दूध के जीर्ण हो जाने पर रोगी की सुधा जागृत होती है, उसको साठो के चावल का भात और दूध खाने को देना चाहिये। इस महत्र पिप्पली कल्प में १० के क्रम से वृद्धि उत्तम, ६ पिप्पली के क्रम से वद्धि मध्यम तथा ३ पिप्पली के क्रम से वृद्धि करके पूर्ण करना अवर माना गया है। यह वधमान पिप्पली चल्प रसायन है, बृहण, वृष्य तथा आयु के लिये हितकर है। कही-कही ग्रथो में पांच पिप्पली का प्रयोग प्रारभ करके प्रतिदिन पांच बढाते हुए पांच सौ ( अर्ध सहत) तक बढाकर फिर पांच घटाते हुए सहल पिप्पली का भी प्रयोग पाया जाता है। रोगी की आयु, बल, काल आदि का विचार करते हुए किमी एक क्रम का निर्णय करना चाहिये। आज यत् और प्लीहा रोगो मे कई जटिल रोग पाये जाते है। इनका सम्यक उपचार भी ज्ञात नही है । जैसे यकृढद्धि ( Cirhosis of liver ), प्लीहोदर ( Spleeno medulary Leukaemia), बालयकृद्दाल्युदर, यकृत् केन्सर आदि । इन रोगो में इन प्रयोगो को करके देखना चाहिये, सभव है-इन में इस कल्प की कुछ उपयोगिता सिद्ध हो। देवद्रमादि योग-देवदारु, सहिजन की छाल, अपामार्ग पचाङ्ग-सम मात्रा में लेकर चूर्ण बनाकर गोमूत्र के साथ सेवन । मात्रा-३ माशा चूर्ण एक छटाँक गोमूत्र से। १ क्रमवृद्धया दशाहानि दशपिप्पलिक दिनम् । वर्द्धयेत्पयसा साद्ध तथैवापनयेत्पुनः ।। जीर्णाजीणं च भुञ्जीत षष्टिक क्षीरसपिंपा। पिप्पलीना सहस्रस्य प्रयोगोऽय रसायन. ॥ दशपिप्पलिक. श्रेष्ठो मध्यमः षट्प्रकीर्तित । यस्त्रिपिप्पलिपर्यन्त प्रयोग सोऽवर. स्मृत ॥ -
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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