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परवती वैद्यों को यूनानी चिकित्सा का सामना करना पड़ा। यूनानी चिकित्सा से कई नये-नये तत्वों का सार ग्रहण आयुर्वेदज्ञों ने किया, कई नई-नई औपधियों से जैसे चोपचीनी, पारसीक यवानी आदि के योगों से शास्त्र को अलंकन किया । पुन. वाट के युग मे यूरोपियन संस्कृति के साथ वैद्यों का मुकाविला पड़ा और उन्होंने कई एक नये रोगों, जिनका वर्णन उसके पूर्व के आयुर्वेदीय ग्रंथों में नहीं पाया जाता है, उनका प्रवेश अपने शास्त्रों में किया। जैसे फिरंग रोग ( देखें भाव प्रकाश)।
फिरग ( Portugese ) देशविशेपार्थ में पुर्तगाल के लिये आया है क्योंकि सर्वप्रथम यही व्यापारी हिन्दुस्तान में व्यापार करने के निमित्त भाये थे। बाद में फिरंग देश समग्र योरोप का योधक हो गया। उसके देश में बहुलता से मिलने वाला या आधुनिक सभ्यता का रोग फिरंग नामक है जो फिरंगियों के सम्पर्क से अन्य लोगों में भी हो सकता है। फिरगी स्त्रियों के अंग सस्पर्श होने वाले इस रोग का नाम ही फिरंग रोग रख दिया गया जो आज 'सिफलिस्' रोग का पर्यायवाची हो गया है :
फिरगसंजके देशे बाहुल्येनैव यद्भवेत् । तस्मात् फिरंग इत्युक्तोः व्याधियाधिविशारदै । गंधरोगः फिरंगोऽय जायते देहिना ध्रुवम् ।
फिरंगिनोऽङ्गसंस्पर्शात् फिरंगिण्याः प्रसगतः ।। फिरंग रोग की व्याख्या, हेतु, निदान, सम्प्राप्ति के अनन्तर उसके प्रभेद और उपद्रवों का विचार करते हुए चिकित्सा की भी सम्यक व्यवस्था तत्कालीन शास्त्रकार को करनी पडी थी ।
कहने का तात्पर्य यह है कि आयुर्वेद का शास्त्र एक अत्यन्त व्यावहारिक ( Practical ) विद्या है इसको युगानुरूप शास्त्रकारों के करने की आवश्यकता सदैव पडती रही है। जैसा कि पूर्व की प्रतिज्ञाओं में प्रसंग आ चुका है यह अनादि, अनन्त और सनातन, सदा बने रहने वाले स्वरूप का है-इसलिये यह स्थिरात्मक ( Static ) न होकर गति-शील ( Dynamic ) है अर्थात् प्रगति का समर्थक है । आयु के हिताहित की दृष्टि से आयु के ज्ञान एव प्राणी के नैरोग्य के लिए व्याधि के विचार से, निदान और शमन की दृष्टि से, प्राणिमात्र के दीर्घायुष्य की प्राप्ति की दृष्टि से जो कुछ भी ज्ञान है वह आयुर्वेद ही है :
आयुर्हिताहितं व्याधेर्निदानं शमनं तथा । विद्यते यत्र विद्वभिः स आयुर्वेद उच्यते ॥ अनेन पुरुपो यस्मादायुर्विन्दति वेत्ति च | तस्मान्मुनिवरै रेप आयुर्वेद इति स्मृतः॥