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भिपकर्म-सिद्धि आवश्यकता होती है उसी प्रकार शुक्र की पुष्टि एवं वृद्धि के लिये और शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिये वाजीकरण की सदा आवश्यकता रहती है।
वाजीकरण शब्द की एक तीसरी व्युत्पत्ति भी ग्रंथो में पाई जाती है। वाज शब्द से मैथुन कर्म का अर्थ ग्रहण करने से वाजी का अर्थ होगा मैथुन-शक्तिसम्पन्न । फिर वाजीकरण का समूह में अर्थ हुआ अवाजी अर्थात मैथुन-शक्तिरहित पुरुप, मैथुन गक्ति से समर्थ जिस क्रिया द्वारा बनाया जावे उसको बाजीकरण कहते है। अस्तु, वाजीकरण संज्ञा से पुस्त्व का ही वोध होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि पुस्त्व को बढानेवाली क्रिया को वाजीकरण कहते है ।
अंग्रेजी में इस प्रकार की क्रिया वाली ओपधियो को Aphorodiasic or Sexstimulent कहा जाता है ।
उपर्युक्त व्युत्पत्ति से स्पष्टतया यह ज्ञात हो रहा है कि वाजीकरण पद मे दो गन्द है वाजी तथा करण । वाजी शब्द का तीन अर्थों मे व्यवहार होता है वाजी एक अर्य शुक्रवान्, दूसरा मर्य घोडा और तीसरा अर्थ पुस्त्व या पुरुपत्व है और करण का एक ही अर्थ है करना या बनाना । अस्तु, वाजीकरण का अर्थ होगा आदमी को Potent वनाना-अर्थात् क्षोणबल पुरुप Impotent man को जिस क्रिया द्वारा आजीवन बलवान् ( Potent man ) बनाया जावे उम चिकित्सा पद्धति को वाजीकरण कहा जाता है। जैसा निम्नलिखित मूत्रो मे स्पष्ट है -
१ वाजः-शुक्रम् तदस्यातीति वाजी अवाजी वाजी क्रियतेऽनेनेति वाजीकरणम् ।
२. वाजी नाम प्रकाशत्वात्तच्च मैथुनसंजितम् । __वाजीकरणसज्ञाभिः पुंस्त्वमेव प्रचक्षते ॥ ३ येन नारीपु सामथ्यं वाजिवल्लभते नरः।
येन वाऽप्यधिक वीर्य वाजीकरणमेव तत् ।। ४ चिन्तया जरया शुक्र व्याधिभिः कर्म कर्पणात् ।
अय गच्छत्यनशनात् स्त्रीणा याति निपेवणात् ।। (भै० र०) ५ मवमानो यदौचित्याद् वाजीवात्यर्थवेगवान् ।
नारीस्तर्पयते तेन वाजीकरणमुच्यते ।। (सु० चि० ३६) ६. वाजीवातिवलो यन यात्यप्रतिहतोऽङ्गनाः।
नवयतिप्रियः स्त्रीणा येन येनोपचीयते ॥ तद्वाजीकरण तद्धि देहस्योत्करं परम् । ७. बाजीकरणमन्विच्छेत् सततं विषयी पुमान् ॥ (वा० ३-४० )