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चतुर्थ खण्ड : वाइसवॉ अध्याय ४४१ शिरीपपुष्पादि नस्य
गिरीप पुष्प, लशुन, सोठ, पीली सरसो, वच, मजीठ, हल्दी, पिप्पली को वस्त-मूत्र मे पीसकर बनाये अंजन या नस्य का प्रयोग लाभप्रद होता है ।
निम्नपत्रादि धूम-नीम की पत्ती, वच, हीग, सर्प की केचुल और सरसो को कूट कर अग्नि में जलाकर धूप देने से डाकिनी आदि भूत-प्रेत दोष दूर होते है।
महाधूप-कपास के बोज, मोर की पाँख, वडी कटेरी पचाङ्ग, निर्माल्य, मैनफल, खस, वशलोचन, विडाल की विष्ठा, धान्य को भूसी, वच, भूतकेशी, मर्प की केचुली, गाय की सीग, हाथी के दाँत, होग और काली मिरच । सब सम भाग लेकर मोटा चूर्ण कर ले । बाग मे जलाकर उसका धूपन उन्मत्त रोगी को कराने से-स्कदापस्मार, उन्माद, पिशाचावेश, राक्षसावेश, देवावेश और ज्वर नष्ट होता है।
महापैशाच-घृत-जटामासी, हरीतकी, भूतकेशी, केवाछ के बीज, त्रायमाण, अरणी, पृश्निपर्णी, चोरक, कुटकी, गुरुच, वाराहीकद, सौफ, सोया बीज, शुद्ध गुग्गुल, शतावरी, ब्राह्मी, रासना, गध रास्ना, मालकगुनी, विछुवा और शालपर्णी।
जटिला पूतना केशी मर्कटी चारटी वचा। त्रायमाणा जया वीरा चोरकं कटुरोहिणी ॥ कायस्था शूकरी छत्रा सातिच्छत्रा पलंकपा । महापुरुपदन्ता च वयस्था नाकुलीद्वयम् ॥ कटम्भरा' वृश्चिकाली स्थिरा चैतैघृतं पचेत् । तत्तु चातुर्थिकोन्माद - ग्रहापरस्मारनाशनम् ।। महापैशाचकं नाम घृतमेतद्यथाऽमृतम् ।
बुद्धि-मेधा-स्मृतिकरं बालानां चाहवर्धनम् ।। कल्याण वृत, चैतस घृत, नारायणल तथा महानारायण तैल का भी उपयोग प्रशस्त है । शिरोप, अमलतास के बीज को भी घृत और मधु से सेवन कराना चाहिये।
भूतभैरव रस-पारद, हरताल, शिलाजीत, लौह भस्म, स्रोतोञ्जन भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध गंधक । प्रथम पारद एवं गधक की कज्जली वनावे फिर शेष द्रव्यो को मिलाकर घोटे । फिर नरमूत्र को भावना देकर एक गोला बना ले। फिर इस गोले को द्विगुण गधक के साथ एक लौह पात्र मे रखकर अग्नि पर चढाकर पाक करे । पाक समाप्त होने पर चूर्ण बनाकर रख ले । मात्रा ५ रत्ती।