SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 664
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१४ भियकर्म-सिद्धि meals ) भी प्रशस्त रहता है अस्तु, ग्लीपद रोगियों में सूर्यास्त के पूर्व तक हो, नायाह्न भोजन की व्यवस्था करनी उत्तम रहती है। क्वचित् सायाह्न भोजन समय से न मिल सके और निगीथ हो जाये तो रोगी को दूध पीकर ही रह जाना अनुकूल पड़ता है। इस प्रकार कलीपट में लंघन सर्थात् विधिपूर्वक उपवान व्रत तथा लघु भोजन की व्यवस्था करनी चाहिये । कहा भी है "लंघनं लघुभोजनम् ।" * बाधुनिक वैज्ञानिको के विचार से श्लोपट रोग एक विशेष प्रकार के अणुकृमियों के कारण पैदा होता है। प्राचीन प्रयकार कृमियो की उत्पत्ति में कारण ग्लेप्मा दोप, श्लैष्मिक माहार-विहार को मानते है। अस्तु, कफनाशक आहारविहार श्लीपद रोग में सदैव अनुकूल पडता है। एतदर्थ रोगी को नया अन्न, अधिक चावल, दही, गुड, उड़द, अम्ल पदार्थ, मछली, बैगन, तिल, गुड, कुष्माण्ड, मलाई, रवडी, मिष्टान्न, मानूप देशज मास, आनूप देश का वास, नदी जल या कच्चे जल का सेवन, अन्य 'पिच्छिल, गुरु एव अभियंदो माहारो का त्याग करना चाहिये। लीपदी को भोजन में पुराना अन्न, जी, गेहूँ, कुलथी, मूंग, चने एवं रहर की दाल, परवल, सहिजन, करेला, वास्तूक, पुनर्नवा प्रभृति-~-कटु, तिक्त और दोपन द्रव्यो का भोजन में प्रयोग करना चाहिये । शाक भाजी कडवे तैल (मर्पप तेल) में मिर्च एवं गरम मसालेदार भोजन एवं लहसुन और प्याज का प्रचुर मात्रा में उपयोग करना चाहिये । लोपद रोग में लहसुन एक उत्तम द्रव्य है। गोमूत्र का सवन भी उत्तम माना जाता है। एरण्ड तेल का प्रयोग रोगी में बीच बीच में फरत रहना चाहिये जिससे विवध न रहे और रोगो की कोष्ठगुद्धि होती रहे ।' श्लीपद रोग में जल के दोपा से बचाने के लिये पंचकोल चूण का उपयोग १-२ मागा की मात्रा में भोजन में छिडक कर करना चाहिये। ग्लीपद गेग यातूप देगज व्याधि है अर्थात् एक विशेष प्रकार के भूखण्ड में पाई जानेवाली व्याधि है, बम्नु, इसमे जल-वायु या देश के परिवर्तन में पर्याप्त लाभ की आगा रहती है। यदि देश-परिवर्तन संभव न हो तो रोगी की एमी व्यवस्था करनी चाहिये, जिसमें जल दोप रोगी को न होने पाये इसलिये पंचकोल चूर्ण थोडी मात्रा में भोजन और पेय के साथ मिलाकर देने से जल दोप नहीं होने १ पुरातना. पष्टिकशालयश्च यवाः कुलस्य लगुन पटोलम् । एरएटतल सुरभीजलञ्च कति तिक्तानि च दीपनानि । एतानि पथ्यानि भवन्ति पुंमा रोगे सति इलीपदनामवेये । ( यो. र ) पिवेत्सर्पपतलं वा दलीपदाना निवृत्तये ।। (सु)
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy