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द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय
द्रव, उष्ण, अभिष्यंदी, नातिस्निग्ध एव विना मिलावट ( कई अन्नो के मिश्रण ) का भोजन देना चाहिए। यह भोजनक्रम जितने दिनो तक स्नेह पिया हो या पीना हो उतने दिनो तक रखना चाहिये ।
आचार-आचार सम्बन्धी भी कई नियमो का पालन स्नेहकाल मे अपेक्षित है। जैसे स्नान और पान मे उष्ण जल का उपयोग, ब्रह्मचर्य, केवल रात्रि मे गयन, उपस्थित वेगो का न रोकना, व्यायाम-क्रोध-शोक-शीत और धूप,
वा के झोके से वचना, सवारी या अधिक पैदल चलना, बहुत बोलना, बहुत देर तक बैठना या पडा होना, सिर को तकिये के बहुत ऊपर या नीचे रखना तथा धुआं-धूलि आदि मे बचकर रहना उत्तम है। जितने दिनो तक स्नेहपान किया हो उतने दिन और अधिक काल तक इन परहेजो से रहना चाहिये । आचार सवधी इन नियमो का पालन न केवल स्नेहनकर्म मे अपितु सभी पचकर्मो मे करना होता है।
काल-मर्यादा-पचकर्म या गोधन कर्मो मे व्यवहृत होने वाले स्नेहनकाल की मर्यादा तीन से मात दिनो की मानी गई है। मृदु कोष्ठ वाले व्यक्ति को तीन दिनो तक, मध्यम कोटवालो मे चार से पांच दिनो तक और कर कोष्ठ के व्यक्तियो में छ से मात दिनो तक स्नेह-पान कराना चाहिये।
यह काल-मर्यादा चिकित्मा मे व्यवहृत होने वाले स्नेहो की नहीं है क्योकि वहाँ पर तो रोग का सशमन या व्यक्ति का वृहण करना लक्ष्य रहता है अतएव वहां पर कालमर्यादा लम्बी हो सकती है। जैसे "मासमेरण्ड तैल पिवेन्मत्रेण मयतम् ।" गृध्रसी-चिकित्सा मे अथवा शोप की चिकित्सा मे बृहद् छागलाद्य घृत या मत्स्य यकृतवमा का प्रयोग । ये प्रयोग लम्बी अवधि तक या दीर्घकालीन हो सकते है । शोधन के कार्यों में जहाँ पर स्नेहो का लक्ष्य स्रोतस मे लीन हुए दोपो को टीला करना पश्चात् वमनादि कर्मों से उसका निहरण करना होता है कुल एक सप्ताह से अधिक स्नेहपान नहीं करना चाहिए क्योकि वह सात्म्य हो जाता है। फलत लाभ-प्रद भी उस दशा मे नही हो पाता।
सद्यः स्नेहन-वलहीन, कृश तथा श्रान्त व्यक्तियो मे cachexia, marasmuss syndrome etc कई बार तुरन्त स्नेहन करने वाली वस्तुओ की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रिया को सद्य. स्नेहन कहा जाता है। निम्नलिखित द्रव्य इस कार्य मे व्यवहृत होते है -
१ पिप्पली चूर्ण, सैन्धवलवण, घी, तैल, वसा, मज्जा और दधि-मस्तु को एक मे मिलाकर पिलाना। २ कम चावल और अधिक दूध से बनी खीर मे घो मिलाकर गर्म गर्म पीना। ३ पिप्पली, घी, सेंधा नमक, तिल को पिष्टी और