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भिपक्षम-सिद्धि २१ कामेजीनसायट्रेट ( Carbamazine citrate) हेद्राजान (Lederle) के नाम से यह औषधि वाजार में मिलती है । गएटूपट कृमि तथा ब्लीपद कृमि में लाभप्रद है। पिपरा जीन सायट्रेट ( Piprazine Citrate) इसके कई योग कई नामो से वाजारो मे मिलते है । 'एण्टोपार' 'वर्मिजाइन' आदि । एक निरापद औपधि है । गण्ड्रपद कृमि ( Round worm) तथा मूत्रकृमि ( Thread worms) मे विशेष लाभप्रद होती है।
प्राचीनोक्त तथा अर्वाचीन कृमिन्नों में अंतर-आधुनिक युग के कृमिन अधिकार वडे तीन एवं विपास्त होते है। इनका अधिक लम्बे समय तक लगातार प्रयोग नही किया जा सकता है क्योकि ये लगातार प्रयोग मे आकर यकृत् को हानि पहुंचाते है। इनके विपरीत प्राचीनोक्त कृमिन औपवियो में विपाक्तता अत्यल्प या नहीं है । मविक दिनो तक प्रयोग में आने पर भी किसी प्रकार से यकृत् की क्रिया को हानि नही पहुँचाते प्रत्युत यकृत् की क्रिया को वल दते है । प्राचीनोक्त बीपधिया मृदु है फलत. इनकी क्रिया (कृमियो के दूर करने की) धोरे धीरे होती है और अधिक काल तक प्रयोग करने की आवश्यकता रहती है । इसके विपरीत माजकल की कृमिन्न मोपधिया तीक्ष्ण होती है। परिणामत इनका कार्य (कृमियो के निकालने का कार्य) भी शीघ्रता से होता है ।
अब विचारणीय है कि प्राचीनोक्त कृमिन्न मोपधियो का प्रयोग अविक उत्तम है या अवाचीन का। गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो दोनो योगों के मिश्रित उपचार का उपयोग अधिक समीचीन प्रतीत होता है। व्यवहार में ऐसा ही किया भी जाता है । उदाहरणार्य एक यकुगमुख कृमि से पीडित रोगी को ले लें। उसको चिकित्सा मे सर्वप्रथम आवश्यकता होती है कि अर्वाचीन कृमिन्न योग की एक तीव्र मात्रा दी जाय जो शीघ्रता से अधिक से अधिक मात्रा में कृमियो को निकाल दे। फिर उसके बाद आयर्वेदीय किसी कृमिघ्न योग की लगातार सेवन करने की एक मास तक व्यवस्था कर दी जाय । कारण यह है अर्वाचीन औपधियाँ तीन होते हए भी सम्पूर्ण कृमियो को एक ही साथ बाहर नहीं निकाल सक्ती कुछ न कुछ गेप रह जाती है जिनकी पुन' वृद्धि होकर रोगी को हानि पहुँच सकती है। इस बीच यदि आयुर्वेदीय योगो का प्रयोग कर दिया जाय तो गेप रही कृमियो के नष्ट हो जाने को पूरी संभावना रहती है।
अर्वाचीन बोपधियो का उपयोग एक वार कर देने के बाद अनन्तर कम से कम तीन सप्ताह का अंतर देना चाहिये यदि आवश्यकता हो तो दो या तीन वार पुन. पुन दी जा सकती है। मध्य के अवान्तर काल में मायुर्वेदीय निरापद